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प्रवृत्ति-निवृत्ति
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गृहस्थ लोग अपने धर्मस्थानों में हिंसा से विरत रहकर हिंसा के श्राचरण का संतोष धारण कर सकते थे। पर उनकी सहज सिद्ध श्रात्मौपम्यकी वृत्ति निष्क्रिय न रही । उस वृत्ति ने उनको विभिन्नधर्मी शक्तिशाली बादशाहों तक साहस पूर्वक अपना ध्येय लेकर जाने की प्रेरणा की और अन्त में वे सफल भी हुए। उन बादशाहों के शासनादेश आज भी हमारे सामने हैं, जो अहिंसा धर्म की गतिशीलता के साक्षी हैं ।
गुजरात के महामाध्य वस्तुपाल का नाम कौन नहीं जानता ? वह अपनी धनराशि का उपयोग केवल अपने धर्मपंथ या साधुसमाज के लिए ही करके सन्तुष्ट न रहा। उसने सार्वजनिक कल्याण के लिए अनेक कामों में अति उदारता से धन का सदुपयोग करके दान मार्ग की व्यापकता सिद्ध की। जगड्डु शाह जो एक कच्छ का व्यापारी था और जिसके पास अन्न घास आदि का बहुत बड़ा संग्रह था उसने उस सारे संग्रह को कच्छ, काठियावाड़ और गुजरात व्यापी तीन वर्ष के दुर्भिक्ष में यथोयोग्य बाँट दिया व पशु तथा मनुष्य की अनुकरणीय सेवा द्वारा अपने संग्रह की सफलता सिद्ध की ।
नेमिनाथ ने जो पशु पक्षी आदि की रक्षा का छोटा सा धर्मत्रीजवपन किया था, और जो मांसभोजन त्याग की नींव डाली थी उसका विकास उनके उत्तराधिकारियों ने अनेक प्रकार से किया है, जिसे हम ऊपर संक्षेप में देख चुके । पर यहाँ पर एक दो बातें खास उल्लेखनीय हैं। हम यह कबूल करते हैं कि पिंजरापोल की संस्था में समयानुसार विकास करने की बहुत गुंजाइश है और उसमें अनेक सुधारने योग्य त्रुटियां भी है । पर पिंजरापोल की संस्था का सारा इतिहास इस बात की साक्षी दे रहा है कि पिंजरापोल के पीछे एक मात्र प्राणिरक्षा और जीवदया की भावना ही सजीव रूप में वर्तमान है । जिन लाचार पशु-पक्षी श्रादि प्राणियों को उनके मालिक तक छोड़ देते हैं, जिन्हें कोई पानी तक नहीं पिलाता उन प्राणियों की निष्काम भाव से आजीवन परिचर्या करना, इसके लिए लाखों रुपए खर्च करना, यह कोई साधारण धर्म संस्कार का परिणाम नहीं है। गुजरात व राजस्थान का ऐसा शायद ही कोई स्थान हो जहाँ पिंजराघोल का कोई न कोई स्वरूप वर्त्तमान न हो । वास्तव में नेमिनाथ ने पिंजरबद्ध प्राणियों को अभयदान दिलाने का जो तेजस्वी पुरुषार्थ किया था, जान पड़ता है, उसी की यह चिरकालीन धर्मस्मृति उन्हीं के जन्मस्थान गुजरात में चिरकाल से व्यापक रूप से चली आती है, और जिसमें श्रम जनता का भी पूरा सहयोग है | पिंजरापोल की संस्थाएँ केवल लूले लंगड़े लाचार प्राणियों की रक्षा के कार्य तक ही सीमित नहीं हैं । वे अतिवृष्टि दुष्काल श्रादि संकटपूर्ण समय में दूसरी भी अनेकविध सम्भक्ति प्राणिरक्षण प्रवृत्तियाँ करती हैं ।
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