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जैन धर्म और दर्शन
वैदिक परंपरानुसारी अक्षपाद के न्याय सूत्र का अवलंबन लेकर अपना तर्कभाषा 'ग्रंथ तेरहवीं-चौदहवीं शताब्दी में रचा । मोक्षाकर का जगत्तल बौद्ध विहार केशव - मिश्र की मिथिला से बहुत दूर न होगा ऐसा जान पड़ता है । उपाध्याय यशोविजयजी ने बौद्ध विद्वान् की दोनों तर्कभाषात्रों को देखा, तब उनकी भी इच्छा हुई कि एक ऐसी तर्कभाषा लिखी जानी चाहिए, जिसमें जैन मन्तव्यों का वर्णन हो | इसी इच्छा से प्रेरित होकर उन्होंने प्रस्तुत ग्रन्थ रचा और उसका केवल तर्क भाषा यह नाम न रख कर 'जैन तर्कभाषा' ऐसा नाम रखा । इसमें कोई संदेह नहीं, कि उपाध्यायजी की जैन तर्कभाषा रचने की कल्पना का मूल उक्त दो तर्क भाषाओं के अवलोकन में है । मोक्षाकरीय तर्कभाषा की प्राचीन ताड़पत्रीय प्रति पाटण के भण्डार में है जिससे जाना जा सकता है कि मोक्षाकरीय तर्कभाषा का जैन भंडार में संग्रह तो उपाध्यायजी के पहिले ही हुआ होगा पर केशवमिश्रीय तर्कभाषा के जैन भंडार में संगृहीत होने के विषय में कुछ भार पूर्वक नहीं कहा जा सकता। संभव है जैन भण्डार में उसका संग्रह सब से पहले उपाध्यायजी ने ही किया हो, क्योंकि इसकी भी विविध टीकायुक्त अनेक प्रतियाँ पाटण आदि अनेक स्थानों के जैन साहित्य संग्रह में हैं ।
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मोक्षारीय तर्क भाषा तीन परिच्छेदों में विभक्त है, जैसा कि उसका श्राधार भूत न्यायविंदु भी है। केशवमिश्रीय तर्क भाषा में ऐसे परिच्छेद विभाग नहीं हैं । श्रतएव उपाध्यायजी की जैन तर्क भाषा के तीन परिच्छेद करने की कल्पना का आधार मोक्षाकरीय तर्क भाषा है ऐसा कहना असंगत न होगा। जैन तर्क भाषा को रचने की, उसके नामकरण की और उसके विभाग की कल्पना का इतिहास थोड़ा बहुत ज्ञात हुआ । पर अब प्रश्न यह है कि उन्होंने अपने ग्रन्थ का जो प्रतिपाद्य विषय चुना और उसे प्रत्येक परिच्छेद में विभाजित किया, उसका आधार कोई उनके सामने था या उन्होंने अपने आप हो विषय की पसंद्गी की और उस का परिच्छेद अनुसार विभाजन भी किया ? इस प्रश्न का उत्तर हमें भट्टारक क लंक के लीयस्त्रय के अवलोकन से मिलता है । उनका लवीयस्त्रय जो मूल पद्यबद्ध है और स्वोपज्ञ विवरणयुक्त है, उसके मुख्यतया प्रतिपाद्य विषय तीन हैं, प्रमाण, नय और निक्षेप | उन्हीं तीन विषयों को लेकर न्याय प्रस्थापक अकलंक ने तीन विभाग में घीयस्त्रय को रचा जो तीन प्रवेशों में विभाजित है । बौद्ध-वैदिक दो तर्क भाषाओं के अनुकरण रूप से जैन तर्कभाषा बनाने की उपाध्यायजी की इच्छा हुई थी ही, पर उन्हें प्रतिपाद्य विषय की पसंदगी तथा उसके विभाग के वास्ते कलंक की कृति मिल गई जिससे उनकी ग्रन्थ निर्माण योजना ठीक बन गई । उपाध्यायजी ने देखा कि लघीयस्त्रयं में प्रमाण, नय और निक्षेप का
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