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'जैन तर्कभाषा '
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और तद्द्वारा भारतीय साहित्य को जैन विद्वान् की हैसियत से जो अपूर्व भेंट दी है, वह कभी संभव न होती ।
दसवीं शताब्दी से नवीन न्याय के विकास के साथ ही समंग्र वैदिक दर्शनों में ही नहीं, बल्कि समग्र वैदिक साहित्य में सूक्ष्म विश्लेषण और तर्क की एक नई दिशा प्रारंभ हुई, और उत्तरोत्तर अधिक से अधिक विकास होता चला जो अभी • तक हो ही रहा है । इस नवीन न्याय कृत नव्य युग में उपाध्यायजी के पहिले भी अनेक श्वेताम्बर दिगम्बर विद्वान् हुए, जो बुद्धि - प्रतिभा संपन्न होने के अलावा जीवन भर शास्त्रयोगी भी रहे। फिर भी हम देखते हैं कि उपाध्यायजी के पूर्ववर्ती किसी जैन विद्वान् ने जैन मन्तव्यों का उतना सतर्क दार्शनिक विश्लेषण व प्रतिपादन नहीं किया, जितना उपाध्यायजी ने किया है । इस अंतर का कारण उपाध्यायजी के काशीगमन में और नव्य न्यायशास्त्र के गंभीर अध्ययन में ही है । नवीन न्यायशास्त्र के अभ्यास से और तन्मूलक सभी तत्कालीन वैदिक दर्शनों के अभ्यास से उपाध्याय जी का सहज बुद्धि प्रतिभा संस्कार इतना विकसित और समृद्ध हुआ कि फिर उसमें से अनेक शास्त्रों का निर्माण होने लगा । उपाध्यायजी के ग्रंथों के निर्माण का निश्चित स्थान व समय देना अभी संभव नहीं । फिर भी इतना तो अवश्य ही कहा जा सकता है कि उन्होंने अन्य जैन साधुत्रों की तरह मन्दिर निर्माण, मूर्ति प्रतिष्ठा, संघ निकालना आदि बहिर्मुख धर्म कार्यों में अपना मनोयोग न लगाकर अपना सारा जीवन जहां वे गये और जहां वे रहे, वहीं एक मात्र शास्त्रों के चिन्तन तथा न्याय शास्त्रों के निर्माण में लगा दिया ।
उपाध्यायजी के ग्रन्थों की सब प्रतियाँ उपलब्ध नहीं हैं। कुछ तो उपलब्ध हैं, पर अधूरी | कुछ बिलकुल अनुपलब्ध हैं । फिर भी जो पूर्ण उपलब्ध हैं, वे ही किसी प्रखर बुद्धिशाली और प्रबल पुरुषार्थी के आजीवन अभ्यास के वास्ते
पर्यात हैं। उनकी लभ्य, अलभ्य और अपूर्ण लभ्य कृतियों को अभी तक की यादी देखने से ही यहां संक्षेप में किया जानेवाला उन कृतियों का सामान्य वर्गीकरण व मूल्यांकन पाठकों के ध्यान में या सकेगा ।
उपाध्यायजी की कृतियां संस्कृत, प्राकृत, गुजराती और हिन्दी-मारवाड़ी इन चार भाषाओं में गद्यबद्ध पद्यबद्ध और गद्य-पद्यबद्ध हैं । दार्शनिक ज्ञान का असली व व्यापक खजाना संस्कृत भाषा में होने से तथा उसके द्वारा ही सकल देश के सभी विद्वानों के निकट अपने विचार उपस्थित करने का सम्भव होने से उपाध्यायजी ने संस्कृत में तो लिखा ही पर उन्होंने अपनी जैन परम्परा की मूलभूत प्राकृत भाषा को गौण न समझा । इसी से उन्होंने प्राकृत में भी रचनाएँ की । संस्कृत-प्राकृत नहीं जाननेवाले और कम जानने वालों तक अपने विचार पहुँचा
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