________________
'ज्ञान बिन्दुपरिचय
३८१
( ३ ) तीसरी भूमिका वह है जो 'अनुयोगद्वार' नामक सूत्र में पाई जाती है, जो कि प्रायः विक्रमीय दूसरी शताब्दी की कृति है । इसमें अक्षपादीय 'न्यायसूत्र' के चार प्रमाणों का' तथा उसी के अनुमान प्रमाण संबन्धी भेद-प्रभेदों का संग्रह है, जो दर्शनान्तरीय अभ्यास का असन्दिग्ध परिणाम है । इस सूत्र में जैन पञ्चविध ज्ञानविभाग को सामने रखते हुए भी उसके कर्त्ता श्रार्यरक्षित सूरि ने शायद, न्याय दर्शन में प्रसिद्ध प्रमाण विभाग को तथा उसकी परिभाषा को जैन विचार क्षेत्र में लाने का सर्व प्रथम प्रयत्न किया है ।
( ४ ) चौथी भूमिका वह है जो वाचक उमास्वाति के 'तत्वार्थसूत्र' और खासकर उनके स्वोपज्ञ भाष्य में देखी जाती है । यह प्रायः विक्रमीय तीसरी शताब्दी के बाद की कृति है । इसमें नियुक्ति प्रतिपादित प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाण का उल्लेख करके वाचक ने अनुयोगद्वार में स्वीकृत न्यायदर्शनीयः चतुर्विध प्रमाणविभाग की ओर उदासीनता दिखाते हुए नियुक्तिगत द्विविध प्रमाण विभाग का समर्थन किया है। बाचक के इस समर्थन का आगे के ज्ञान विकास पर प्रभाव यह पड़ा है कि फिर किसी जैन तार्किक ने अपनी ज्ञान-विचारणा में उक्त चतुर्विध प्रमाणविभाग को भूल कर भी स्थान नहीं दिया। हाँ, इतना तो अवश्य हुआ कि श्रार्यरक्षित सूरि जैसे प्रतिष्ठित अनुयोगधर के द्वारा, एक बार जैन श्रु में स्थान पाने के कारण, फिर न्यायदर्शनीय वह चतुर्विध प्रमाण विभाग,. हमेशा के वास्ते भगवता आदि परम प्रमाण भूत आगमों में भी संगृहीत हो गया है । वाचक उमास्वाति का उक्त चतुर्विध प्रमाणविभाग की ओर उदासीन रहने में तात्पर्य यह जान पड़ता है कि जब जैन आचार्यों का स्वोपज्ञ प्रत्यक्ष -. परोक्ष प्रमाणविभाग है तब उसी को लेकर ज्ञानों का विचार क्यों न किया जाए ? और दर्शनान्तरीय चतुर्विध प्रमाणविभाग पर क्यों भार दिया जाए ? इसके सिवाय वाचक ने मीमांसा श्रादि दर्शनान्तर में प्रसिद्ध अनुमान, अर्थापत्ति आदि प्रमाणों का समावेश भी मति श्रुत में किया जो बाचक के पहले किसी के द्वारा किया हुआ देखा नहीं जाता । वाचक के प्रयत्न की दो बातें खास ध्यान खींचती.
१ अनुयोगद्वार सूत्र पृ० २११ से । २ तत्त्वार्थसूत्र १. ६-१३ । ३ ' चतुर्विधमित्येके नयवादान्तरेण' - तत्त्वार्थभाग्य १-६ । ४ ' से किं तं प्रमाणे ? चउव्विहे पण्णत्ते, तं जहा - पञ्च क्खे' 'जहा अणुयोगदारे तहा यव्वं ॥' भगवती, श० ५. उ०३. भाग २. पृ० २११; स्थानांगसूत्र पृ० ४६ ॥
५ तत्त्वार्थभाष्य १-१२ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org