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जैन और वैदिक हिंसा
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शास्त्रीय सामग्री उपाध्यायजो को प्राप्त थी श्रतएव उन्होंने 'वाक्यार्थ विचार' प्रसंग में जैनसम्मत – खासकर साधुजीवनसम्मत अहिंसा को लेकर उत्सर्ग-अपवादभाव की चर्चा की है । उपाध्यायजी ने जैनशास्त्र में पाए जानेवाले अपवादों का निर्देश करके स्पष्ट कहा है कि ये अपवाद देखने में कैसे ही क्यों न हिंसाविरोधी हों, फिर भी उनका मूल्य औत्सर्गिक हिंसा के बराबर ही है । अपवाद अनेक बतलाए गए हैं, और देश काल के अनुसार नए अपवादों की भी सृष्टि हो सकती है; फिर भी सब अपवादों की श्रात्मा मुख्यतया दो तत्त्वों में समा जाती है। उनमें एक तो है गीतार्थत्व यानि परिणतशास्त्र ज्ञान का और दूसरा है कृतयोगित्व अर्थात् चित्तसाम्य या स्थितप्रज्ञत्व का ।
उपाध्यायजी के द्वारा बतलाई गई जैन श्रहिंसा के उत्सर्ग अपवाद की यह चर्चा, ठीक अक्षरशः मीमांसा और स्मृति के हिंसा संबंधी उत्सर्ग - अपवाद की विचारसरणि से मिलती है । अन्तर है तो यही कि जहाँ जैन विचारसरणि साधु या पूर्णत्यागीके जीवन को लक्ष्य में रखकर प्रतिष्ठित हुई है वहाँ मीमांसक और स्मार्ती की विचारसरणि गृहस्थ, त्यागी सभी के जीवन को केन्द्र स्थान में रखकर प्रचलित हुई है। दोनों का साम्य इस प्रकार है
१ जैन
१ सव्वे पाणा न तव्या
२ साधुजीवन की अशक्यता का
प्रश्न
२ वैदिक
१ मा हिंस्यात् सर्वभूतानि
२ चारों आश्रम के सभी प्रकार के अधिकारियों के जीवन की
तथा तत्संबंधी कर्तव्यों की अशक्यता का प्रश्न
३ शास्त्रविहित प्रवृत्तियों में हिंसादोष का प्रभाव अर्थात् निषिद्धाचार ही हिंसा है
यहाँ यह ध्यान रहे कि जैन तत्त्वज्ञ 'शास्त्र' शब्द से जैन शास्त्र को - खासकर साधु-जीवन के विधि-निषेध प्रतिपादक शास्त्र को ही लेता है; जब कि वैदिक तत्वचिन्तक, शास्त्र शब्द से उन सभी शास्त्रों को लेता है जिनमें वैयक्तिक, कौटुम्बिक, सामाजिक, धार्मिक और राजकीय आदि सभी कर्तव्यों का विधान है ।
४ श्रनन्तोमत्वा श्रहिंसा का तात्पर्य वेद तथा स्मृतियों की आज्ञा के पालनमें ही है ।
३ शास्त्रविहित प्रवृत्तियों में हिंसा दोष का अभाव अर्थात् निषिद्धाचरण ही हिंसा
४ अन्ततोगत्वा हिंसा का मर्म जिनाज्ञा के-- जैन शास्त्र के यथावत् अनुसरण ही है ।
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