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जैन धर्म और दर्शन
की अपनी हिंसा हिंसा विषयक मीमांसा का जैन दृष्टि के अनुसार संशोधित
मार्ग है।
भिन्न-भिन्न समय के अनेक ऋषियों के द्वारा सर्वभूतदया का सिद्धान्त तो वर्ग में बहुत पहले ही स्थापित हो चुका था; जिसका प्रतिघोष है -- 'मा . हिंस्यात् सर्वा भूतानि ' --- यह श्रुतिकल्प वाक्य यज्ञ आदि धर्मों में प्राणिवध का 'समर्थन करनेवाले मीमांसक भी उस अहिंसाप्रतिपादक प्रतिघोष को पूर्णतया प्रमाण रूप से मानते आए हैं । अतएव उनके सामने भी अहिंसा के क्षेत्र में यह प्रश्न तो अपने आप ही उपस्थित हो जाता था । तथा सांख्य आदि अर्ध वैदिक परंपराओं के द्वारा भी वैसा प्रश्न उपस्थित हो जाता था कि जब हिंसा को निषिद्ध व निष्ठजननी तुम मीमांसक भी मानते हो तब यज्ञ आदि प्रसंगों में, की जानेवाली हिंसा भी, हिंसा होने के कारण अनिष्टजनक क्यों नहीं ? और जब हिंसा के नाते यज्ञीय हिंसा भी अनिष्टजनक सिद्ध होती है तब उसे धर्म का- इष्ट का निमित्त मानकर यज्ञ आदि कर्मों में कैसे कर्तव्य माना जा सकता है ? इस प्रश्न का जवाब बिना दिए व्यवहार तथा शास्त्र में काम चल ही नहीं सकता था । अतएव पुराने समय से याज्ञिक विद्वान् अहिंसा को पूर्णरूपेण धर्म मानते हुए भी, बहुजनस्वीकृत और चिरप्रचलित यज्ञ आदि कर्मों में होनेवाली हिंसा का धर्म- कर्तव्य रूप से समर्थन, अनिवार्य अपवाद के नाम पर करते आ रहे थे | मीमांसकों की अहिंसा-हिंसा के उत्सर्ग- अपवादभाववाली चर्चा के प्रकार तथा उसका इतिहास हमें आज भी कुमारिल तथा प्रभाकर के ग्रन्थों में विस्पष्ट और मनोरंजन रूप से देखने को मिलता है । इस बुद्धिपूर्ण चर्चा के द्वारा मीमांसकों ने सांख्य, जैन, बौद्ध आदि के सामने यह स्थापित करने का प्रयत्न किया है। कि शास्त्र विहित कर्म में की जानेवाली हिंसा अवश्य कर्तव्य होने से अनिष्ट
धर्म का निमित्त नहीं हो सकती । मीमांसकों का अन्तिम तात्पर्य यही है कि शास्त्र - वेद ही मुख्य प्रमाण है और यज्ञ आदि कर्म वेदविहित हैं । अतएव जो यज्ञ आदि कर्म को करना चाहे या जो वेद को मानता है उसके वास्ते वेदाज्ञा का पालन ही परम धर्म है, चाहे उसके पालन में जो कुछ करना पड़े। मीमांसकों का यह तात्पर्यनिर्णय आज भी वैदिक परंपरा में एक ठोस सिद्धांत है । सांख्य आदि जैसे यज्ञीय हिंसा के विरोधी भी वेद का प्रामाण्य सर्वथा न त्याग देने के कारण अन्त में मीमांसकों के उक्त तात्पर्यार्थ निर्णय का आत्यंतिक विरोध कर न सके। ऐसा विरोध आखिर तक वे ही करते रहे जिन्होंने वेद के प्रामाण्य का सर्वथा इन्कार कर दिया। ऐसे विरोधियों में जैन परंपरा मुख्य है । जैन परंपरा ने वेद के प्रामाण्य के साथ वेदविहित हिंसा की धर्म्यता का भी सर्वतोभावेन
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