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..जैन धर्म और दर्शन है। उन्होंने अति विस्तृत और अति विशद वर्णन के द्वारा जो रहस्य प्रकट किय है वह दिगम्बर-श्वेताम्बर दोनों परंपराओं को एक-सा सम्मत है । 'पूज्यपाद ने अपनी लाक्षणिक शैली में क्षयोपशम का स्वरूप अति संक्षेप में स्पष्ट ही किया है। राजवार्तिककार ने उस पर कुछ और विशेष प्रकाश डाला है। परन्तु इस विषय पर जितना और जैसा विस्तृत तथा विशद वर्णन श्वेताम्बरीय ग्रन्थों में खासकर मलयगिरीय टीकाओं में पाया जाता है उतना और वैसा विस्तृत व विशद वर्णन हमने अभी तक किसी भी दिगम्बरीय प्राचीन-अर्वाचीन ग्रन्थ में नहीं देखा । जो कुछ हो पर श्वेताम्बर-दिगम्बर दोनों परंपराओं का प्रस्तुत विषय में विचार और परिभाषा का ऐक्य सूचित करता है कि क्षयोपशमविषयक प्रक्रिया अन्य कई प्रक्रियाओं की तरह बहुत पुरानी है और उसको जैन तत्त्वज्ञों ने ही इस रूप में इतना अधिक विकसित किया है ।
क्षयोपशम की प्रक्रिया का मुख्य वक्तव्य इतना ही है कि अध्यवसाय की विविधता ही कर्मगत विविधता का कारण है। जैसी-जैसी रागद्वेषादिक को तीव्रता या मन्दता वैसा-वैसा ही कर्म की विपाकजनक शक्ति का-रस का तीव्रत्व या मन्दत्व । कर्म की शुभाशुभता के तारतम्य का आधार एक मात्र अध्यवसाय की शुद्धि तथा अशुद्धि का तारतम्य ही है । जन्न अध्यवसाय में संक्लेश की मात्रा तीव्र हो तब तज्जन्य अशुभ कर्म में अशुभता तीव्र होती है और तज्जन्य शुभ कर्म में शुभता मन्द होती है । इसके विपरीत जब अध्यवसाय में विशुद्धि की मात्रा बढ़ने के कारण संक्लेश की मात्रा मन्द हो जाती है तब तज्जन्य शुभ कर्म में शुभता की मात्रा तो तीच होती है और तज्जन्य अशुभ कर्म में अशुभता मन्द हो जाती है । अध्यवसाय का ऐसा भी बल है जिससे कि कुछ तीव्रतमविपाकी कौश का तो उदय के द्वारा ही निमूल नाश हो जाता है और कुछ वैसे ही कर्मांश विद्यमान होते हुए भी अकिञ्चित्कर बन जाते हैं, तथा मन्दविपाकी कर्माश ही अनुभव में अाते हैं । यही स्थिति क्षयोपशम की है।
ऊपर कर्मशक्ति और उसके कारण के संबन्ध में जो जैन सिद्धान्त बतलाया है वह शब्दान्तर से और रूपान्तर से ( संक्षेप में ही सही) सभी पुनर्जन्मवादी दर्शनान्तरों में पाया जाता है । न्याय-वैशेषिक, सांख्य और बौद्ध दर्शनों में यह स्पष्ट बतलाया है कि जैसी राग-द्वेष-मोहरूप कारण की तीव्रता-मन्दता वैसी धर्माधर्म या कर्म संस्कारों की तीव्रता-मंदता । वेदांत दर्शन भी जैन सम्मत कर्म की तीव्र-मंद शक्ति की तरह अज्ञान गत नानाविध तीव्र-मंद शक्तियों का वर्णन करता है, जो तत्त्वज्ञान की उत्पत्ति के पहले से लेकर तत्वज्ञान की उत्पत्ति के बाद भी यथा
१. देखो, ज्ञानबिदु टिप्पण पृ० ६२, पं० से ।
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