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जैन धर्म और दर्शन ३. अड़ में परिणामि नित्यता और चेतन में कूटस्थ नित्यता का विवेक । ४---(अ) कूटस्थ और परिणामि दोनों निस्यता का लोप और मात्र परिणाम
प्रवाह की सत्यता। (ब) केवल कूटस्थ चैतन्य की ही या चैतन्य मात्र की सत्यता और
तद्भिन्न सब की काल्पनिकता या असत्यता । जैन परंपरा दृश्य विश्व के अलावा परस्पर अत्यंत भिन्न ऐसे जड़ और चेतन अनन्त सक्ष्म तत्त्वों को मानती है । वह स्थूल जगत को सूक्ष्म जड़ तत्त्वों का ही कार्य या रूपान्तर मानती है। जैन परंपरा के सक्ष्म जड़ तत्त्व परमाणु रूप हैं । पर वे आरंभवाद के परमाणु को अपेक्षा अत्यंत सूक्ष्म माने गए हैं । परमाणुवादी होकर भी जैन दर्शन परिणामवाद की तरह परमाणुत्रों को परिणामी मानकर स्थल जगत को उन्हीं का रूपान्तर या परिणाम मानता है । वस्तुतः जैन दर्शन परिणामवादी है। पर सांख्ययोग तथा प्राचीन वेदान्त आदि के परिणामवाद से जैन परिणामवाद का खास अन्तर है । वह अन्तर यह है कि सांख्ययोग का परिणामबाद चेतन तत्त्व से अस्पृष्ट होने के कारण जड़ तक ही परिमित है और भर्तृप्रपञ्च आदि का परिणामवाद मात्र चेतनतत्वस्पर्शी है। जब कि जैन परिणामवाद जड़चेतन, स्थूल-सूचम समग्र वस्तुस्पर्शी है । अतएव जैन परिणामवाद को सर्वव्यापक परिणामवाद समझना चाहिए। भर्तृप्रपञ्च का परिणामवाद भी सर्वव्यापक कहा जा सकता है फिर भी उसके और जैन के परिणामवाद में अन्तर यह है कि भर्तृप्रपञ्च का 'सर्व' चेतन ब्रह्म मात्र है, तद्भिन्न और कुछ नहीं जब कि जैन का सर्व अनन्त जड़ और चेतन तत्त्वों का है। इस तरह प्रारंभ और परिणाम दोनों वादों का जैन दर्शन में व्यापक रूप में पूरा स्थान तथा समन्वय है। पर उसमें प्रतीत्यसमुत्पाद तथा विवर्तवाद का कोई स्थान नहीं है । वस्तु मात्र को परिणामी नित्य और समान रूप से वास्तविक सत्य मानने के कारण जैन दर्शन प्रतीत्यसमुत्पाद तथा विवर्तवाद का सर्वथा विरोध ही करता है जैसा कि न्यायवैशेषिक सांख्य-योग आदि भी करते हैं। न्याय-वैशेषिक सांख्ययोग आदि की तरह जैन दर्शन चेतन बहुत्ववादी है सही, पर उसके चेतन तत्व अनेक दृष्टि से भिन्न स्वरूप वाले हैं। जैनदशन, न्याय, सांख्य आदि की तरह चेतन को न सर्वव्यापक द्रव्य मानता है और न विशिष्टाद्वैत श्रादि की तरह अणुमात्र ही मानता है और न बौद्ध दर्शन की तरह ज्ञान की निद्रव्यकधारामात्र । जैनाभिमत समग्र चेतन तत्त्व मध्यम परिमाणवाले और संकोचविस्तारशील होने के कारण इस विषय में जड़ द्रव्यों से अत्यन्त विलक्षण नहीं । न्याय-वैशेषिक और योग दर्शन मानते हैं कि आत्मत्व या चेतनत्व समान होने
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