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पंचेन्द्रिय
और (२) अाभ्यन्तर, ये दो भेद हैं। (१) इन्द्रिय के बाह्य आकार को 'बाह्यनिवृत्ति' कहते हैं और (२) भीतरी आकार को 'श्राभ्यन्तरनित्ति' । बाह्य भाग तलवार के समान है और अभ्यन्तर भाग तलवार की तेज धार के समान, जो अत्यन्त स्वच्छ परमाणुओं का बना हुआ होता है । अाभ्यान्तरनिर्वृत्ति का यह पुद्गलमय स्वरूप प्रज्ञापनासूत्र-इन्द्रियपद की टीक पृ० २६ के अनुसार है। प्राचा. राङ्गवत्ति पृ० १०४ में उसका स्वरूप चेतनामय बतलाया है।
आकार के संबन्ध में यह बात जाननी चाहिए कि त्वचा की प्राकृति अनेक प्रकार की होती है, पर उसके बाह्य और आभ्यन्तर आकार में जुदाई नहीं है । किसी प्राणी की त्वचा का जैसा बाह्य प्राकार होता है, वैसा ही आभ्यन्तर अाकार होता है। परन्तु अन्य इन्द्रियों के विषय में ऐसा नहीं है त्वचा को छोड़ अन्य सब इन्द्रियों के प्राभ्यन्तर याकार, बाह्य आकार से नहीं मिलते। सब जाति के प्राणियों को सजातीय इन्द्रियों के आभ्यन्तर आकार, एक तरह के माने हुए हैं। जैसेकान का आभ्यन्तर आकार, कदम्ब-पुष्प-जैसा, आँख के मसूर के दाना-जैसा, नाक का अतिमुक्तक के फूल जैसा और जीभका छुरा-जैसा है। किन्तु बाह्य आकार, सब जाति में भिन्न-भिन्न देखे जाते हैं। उदाहरणार्थ:--मनुष्य हाथी, घोड़ा, बैल, बिल्ली, चूहा आदि के कान, आँख, नाक, जीभ को देखिए ।
(ख) अाभ्यन्तरनिवृत्ति की विषय-ग्रहण-शक्ति को 'उपकरणेन्द्रिय' कहते हैं। (२) भावेन्द्रिय दो प्रकार की हैं--(१) लब्धिरूप और (२) उपयोगरूप ।
(१) मतिशानावरण के क्षयोपशम को-चेतन-शक्ति की योग्यता-विशेष को —'लब्धिरूप भावेन्द्रिय' कहते हैं । (२) इस लब्धिरूप भावेन्द्रिय के अनुसार आत्मा की विषय-ग्रहण में जो प्रवृत्ति होती है, उसे 'उपयोगरूप भावेन्द्रिय कहते हैं । ___ इस विषय को विस्तारपूर्वक जानने के लिए प्रज्ञापना-पद १५, पृ० २६३; तत्त्वार्थ-अध्याय २, सू०१७-१८ तथा वृत्ति; विशेषाव०, गा० २६६३-३००३ तथा लोकप्रकाश-सर्ग ३; श्लोक ४६४ से आगे देखना चाहिए।
(३) 'संज्ञा'
संज्ञा का मतलब अाभोग (मानसिक-क्रिया-विशेष) से है । इसके (क) ज्ञान और (ख) अनुभव, ये दो भेद हैं ।
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