________________
३२४
जैन धर्म और दर्शन
प्रमाण है कि समान साधन और अवसर मिलने पर स्त्री भी पुरुष - जितनी योग्यता प्रास कर सकती है । श्वेताम्बर आचार्यों ने स्त्री को पुरुष के बराबर योग्य मानकर उसे कैवल्य व मोक्ष की अर्थात् शारीरिक और आध्यात्मिक पूर्ण विकास की अधिकारिणी सिद्ध किया है। इसके लिए देखिए, प्रज्ञापना- सूत्र० ७, पृ० १८ नन्दी -सूत्र ० २१, पृ० १३० १
इस विषय में मतभेद रखनेवाले दिगम्बर श्राचार्यों के विषय में बहुतकुछ लिखा गया है । इसके लिए देखिए, नन्दी-टीका, पृ० १३१-१३३; प्रज्ञापना- टीका, पृ० २० - २२; शास्त्रवार्ता समुच्चय- टीका, पृ० ४२५ – ४३० । आलङ्कारिक पण्डित राजशेखर ने मध्यस्थभावपूर्वक स्त्री जाति को पुरुषजाति के तुल्य बतलाया है
'पुरुषवत् येोषितोऽपि कवीभत्रेयुः । न स्त्रैणं पौरुषं वा विभागमपेक्षते । महामात्यदुहितरो गणिका: कौतुकभार्या
संस्कारो ह्यात्मनि समवैति, श्रूयन्ते दृश्यन्ते च राजपुत्र्यो शास्त्रप्रतिबुद्धाः कवयश्च ।' -काव्यमीमांसा - अध्याय १० ।
[ विरोध-- ] स्त्री को दृष्टिवाद के अध्ययन का जो निषेध किया है, इसमें दो तरह से विरोध आता है - ( १ ) तर्क- दृष्टि से और ( २ ) शास्त्रोक्त मर्यादा से ।
(१) एक ओर स्त्री को केवलज्ञान व मोक्ष तक की अधिकारिणी मानना और दूसरी ओर उसे दृष्टिवाद के अध्ययन के लिए - श्रुतज्ञान-विशेष के लिएअयोग्य बतलाना, ऐसा विरुद्ध जान पड़ता है, जैसे किसी को रत्न सौंपकर कहना कि तुम कौड़ी की रक्षा नहीं कर सकते ।
1
(२) दृष्टिवाद के अध्ययन का निषेध करने से शास्त्र कथित कार्य-कारणभावकी मर्यादा भी बाधित हो जाती है । जैसे— शुक्लध्यान के पहले दो पाद प्राप्त किये बिना केवलज्ञान प्राप्त नहीं होता; 'पूर्व' ज्ञान के बिना शुक्लध्यान के प्रथम दो पाद प्राप्त नहीं होते और 'पूर्व' दृष्टिवाद का एक हिस्सा है । यह मर्यादा शास्त्र में निर्विवाद स्वीकृत है-
"
Jain Education International
'शुक्ल चाये पूर्वविदः ।'
-- तत्त्वार्थ श्र०
इस कारण दृष्टिवाद के अध्ययन की अनधिकारिणी स्त्री को केवलज्ञान की अधिकारिणी मान लेना स्पष्ट विरुद्ध जान पड़ता है ।
दृष्टिवाद के अनधिकार के कारणों के विषय में दो पक्ष हैं
प० ६, सू० ३६
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org