________________
३२२
जैन धर्म और दर्शन अलग हैं, इसी प्रकार अवधि-उपयोगवाले अज्ञानी में भी विभङ्गशान और अवधिदर्शन, ये दोनों वस्तुतः भिन्न हैं सही, तथापि विभङ्गशान और अवधिदर्शन इन दोनों के पारस्परिक भेद की अविवक्षामात्र है। भेद विवक्षित न रखने का सवत्र दोनों का सादृश्यमात्र है । अर्थात् जैसे विभङ्गज्ञान विषय का यथार्थ निश्रय नहीं कर सकता, वैसे ही अवधिदर्शन सामान्यरूप होने के कारण विषय का निश्चय नहीं कर सकता।
इस अभेद-विवक्षा के कारण पहले मत के अनुसार चौथे आदि नौ गुणस्थानों में और दूसरे मत के अनुसार तीसरे आदि दस गुणस्थानों में अवधिदर्शन समझना चाहिए।
(ख) सैद्धान्तिक विद्वान् विभङ्गज्ञान और अवधिदर्शन, दोनों के भेद की विवक्षा करते हैं, अभेद की नहीं । इसी कारण वे विभङ्गज्ञानी में अवधिदर्शन मानते हैं। उनके मत से केवल पहले गुणस्थान में विभङ्गज्ञान का संभव है, दूसरे आदि में नहीं। इसलिए वे दूसरे आदि ग्यारह गुणस्थानों में अवधिज्ञान के साथ और पहले गुणस्थान में विभङ्गज्ञान के साथ अवधिदर्शन का साहचर्य मानकर पहले बारह गुणस्थानों में अवधिदर्शन मानते हैं। अवधिज्ञानी के और विभङ्गशानी के दर्शन में निराकारता अंश समान ही है । इसलिए विभङ्गज्ञानी के दर्शन की 'विभङ्गदर्शन' ऐसी अलग संज्ञा न रखकर 'अवधिदर्शन' ही संज्ञा रखी है। __ सारांश, कार्मग्रन्थिक-पक्ष, विभङ्गज्ञान और अवधिदर्शन, इन दोनों के भेद की विवक्षा नहीं करता और सैद्धान्तिक-पक्ष करता है।
-लोक प्रकाश सर्ग ३, श्लोक १०५७ से आगे। इस मत-भेद का उल्लेख विशेषणवती ग्रन्थ में श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने किया है, जिसकी सूचना प्रज्ञापना-पद १८, वृत्ति (कलकत्ता) पृ० ५६६ पर है ।
--- -
(१२) 'आहारक'-केवलज्ञानी के आहार पर विचार
तेरहवें गुणस्थान के समय श्राहारकत्व का अङ्गीकार चौथे कर्मग्रन्थ प०८६ तथा दिगम्बरीय ग्रन्थों में है। देखो-~~-तत्त्वार्थ-अ० १, सू०८ को सर्वार्थसिद्धि----
'आहारानुवादेन आहार केषु मिथ्यादृष्टयादीनि सयोगकेवल्यन्तानि
इसी तरह गोम्मटसार-जीवकाण्ड की ६६५ और ६६७ वी गाथा भी इसके लिए देखने योग्य है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org