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अनाहारक
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१ की तथा शतक १४, उद्देश्य १ की टीका में भी है। किन्तु इस मतान्तर का जहाँ कहीं उल्लेख है, वहाँ सब जगह यही लिखा है कि चतुर्विग्रहगति का निर्देश किसी मूल सूत्र में नहीं है । इससे जान पड़ता है कि ऐसी गति करनेवाले जीव ही बहुत कम हैं । उक्त सूत्रों के भाष्य में तो यह स्पष्ट लिखा है कि त्रि-विग्रह से अधिक विग्रहवाली गति का संभव ही नहीं है । __ 'अविग्रहा एकविग्रहा द्विविग्रहां त्रिविग्रहा इत्येताश्चतुस्समयपराश्चतुर्विधा गतयो भवन्ति, परतो न सम्भवन्ति ।" भाष्य के इस कथन से तथा दिगम्बर-ग्रंथों में अधिक से अधिक त्रि-विग्रह गति का ही निर्देश पाये जाने से और भगवती-टीका श्रादि में जहाँ कहीं चतुर्विग्रहगति का मतान्तर हैं, वहाँ सब जगह उसकी अल्पता दिखाई जाने के कारण अधिक से अधिक तीन विग्रहवाली गति ही का पक्ष बहुमान्य समझना चाहिए ।
(२) वक्र-गति के काल-परिमाण के संबन्ध में यह नियम है कि वक्र गति का समय विग्रह की अपेक्षा एक अधिक ही होता है। अर्थात् जिस गति में एक विग्रह हो, उसका काल-मान दो समयोंका, इस प्रकार द्वि विग्रहगति का काल-मान तीन समयों का और त्रि-विग्रहगति का काल-मान चार समयों का है। इस नियम में श्वेताम्बर-दिगम्बर का कोई मत-भेद नहीं । हाँ ऊपर चतुर्विग्रह गति के मतान्तर का जो उल्लेख किया है, उसके अनुसार उस गति का काल-मान पाँच समयों का बतलाया गया है।
(३) विग्रहगति में अनाहारकत्व के काल-भान का विचार व्यवहार और निश्चय, दो दृष्टियों से किया हुआ पाया जाता है। व्यवहारवादियों का अभिप्राय यह है कि पूर्व-शरीर छोड़ने का समय, जो वक्र-गति का प्रथम समय है, उसमें पूर्व-शरीर-योग्य कुछ पुद्गल लोमाहारद्वारा ग्रहण किए जाते हैं।--वृहत्संग्रहणी गा० ३२६ तथा उसकी टीका, लोक० सर्ग ३, श्लो०, ११०७ से आगे । परन्तु निश्चयवादियों का अभिप्राय यह है कि पूर्व-शरीर छूटने के समय में, अर्थात् वक्रगति के प्रथम समय में न तो पूर्व-शरीर का ही संबन्ध है और न नया शरीर बना है; इसलिए उस समय किसी प्रकार के आहार का संभव नहीं। -लोक० स० ३, श्लो० १११५ से आगे । व्यवहारवादी हो या निश्चयवादी, दोनों इस बात को बराबर मानते हैं कि वक्र-गति का अंतिम समय, जिसमें जीव नवीन स्थान में उत्पन्न होता है, उसमें अवश्य आहार ग्रहण होता है । व्यवहार नय के अनुसार अनाहारकत्व का काल-मान इस प्रकार समझना चाहिए
एक विग्रह वाली गात, जिसकी काल-मर्यादा दो समय की है, उसके दोनों
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