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जैन धर्म और दर्शन में कर्म का क्षय भी जारी रहता है, जो कम से कम प्रदेशोदय के सिवाय हो ही नहीं सकता। परंतु उपशम में यह बात नहीं। जब कर्म का उपशम होता है, तभी से उसका क्षय रुक ही जाता है, अत एव उसके प्रदेशोदय होने की आवश्यकता ही नहीं रहती। इसीसे उपशम-अवस्था तभी मानी जाती है, जब कि अन्तरकरण होता है । अन्तरकरण के अन्तर्मुहूर्त में उदय पाने के योग्य दलिकों में से कुछ तो पहले ही भोग लिये जाते हैं और कुछ दलिक पीछे उदय पाने के योग्य बना दिये जाते हैं, अर्थात् अन्तरकरण में वेद्य-दलिकों का अभाव होता है ।
अत एव क्षयोपशम और उपशम की संक्षिप्त व्याख्या इतनी ही की जाती है कि क्षयोपशम के समय, प्रदेशोदय या मन्द विपाकोदय होता है, पर उपशम के समय, वह भी नहीं होता। यह नियम याद रखना चाहिए कि उपशम भी घातिकर्म का ही हो सकता है, सो भी सब घातिकर्म का नहीं, किंतु केवल मोहनीयकर्म का। अर्थात् प्रदेश और विपाक दोनों प्रकार का उदय, यदि रोका जा सकता है तो मोहनीयकर्म का ही। इसके लिए देखिए, नन्दी, सू०८ की टीका, पृ. ७७; कम्मपयडी, श्री यशोविजयजी-कृत टीका, पृ० १३; पञ्च० द्वा० १, गा २६ की मलयगिरि-व्याख्या । सम्यक्त्व स्वरूप, उत्पत्ति और भेदप्रभेदादि के सविस्तर विचार के लिए देखिए, लोक प्र०-सर्ग ३, श्लोक ५६६-७०० ।
(९) अचक्षुर्दर्शन का सम्भव ____ अठारह मार्गणा में श्रचतुर्दर्शन परिगणित है; अतएव उसमें भी चौदह जीवस्थान समझने चाहिए । परन्तु इस पर प्रश्न यह होता है कि अचतुर्दर्शन में जो अपर्याप्त जीवस्थान माने जाते हैं, सो क्या अपर्याप्त अवस्था में इन्द्रियपर्याप्ति पूर्ण होने के बाद अचक्षुदर्शन मान कर या इन्द्रिय पर्याप्ति पूर्ण होने के पहले भी अचक्षुर्दर्शन होता है, यह मान कर ?
यदि प्रथम पक्ष माना जाए, तब तो ठीक है; क्योंकि इन्द्रियपर्याप्ति पूर्ण होने के बाद अपर्याप्त अवस्था में ही चक्षुरिन्द्रिय द्वारा सामान्य बोध मान कर जैसेचक्षुर्दर्शन में तीन अपर्याप्त जीवस्थान चौथे कर्मग्रंय की १७वीं गाथा में मतान्तर से बतलाये हुए हैं वैसे ही इन्द्रियपर्याप्ति पूर्ण होने के बाद अपर्याप्त-अवस्था में चक्षुभिन्न इन्द्रिय द्वारा सामान्य बोध मान कर अचक्षुर्दर्शन में सात अपर्याप्त जीवस्थान घटाये जा सकते हैं।
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