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योगमार्गणा
विशेषावश्यक भाष्य, गा० ३५६ – ३६४ तथा लोकप्रकाश-सर्ग ३, श्लो०१३५४१३५५ के बीच का गद्य देखना चाहिए ।
द्रव्यमन, द्रव्यवचन और शरीर का स्वरूप
( क ) जो पुद्ग्ल मन बनने के योग्य हैं, जिनको शास्त्र में 'मनोवर्गणा' कहते हैं, वे जब मनरूप में परिणत हो जाते हैं --- विचार करने में सहायक हो सकें, ऐसी स्थिति को प्राप्त कर लेते हैं- -तब उन्हें 'मन' कहते हैं। शरीर में द्रव्यमन के रहने का कोई खास स्थान तथा उसका नियत श्राकार श्वेताम्बरीय ग्रन्थों में नहीं है | श्वेताम्बर सम्प्रदाय के अनुसार द्रव्यमन को शरीर व्यापी और शरीराकार समझना चाहिए | दिगम्बर सम्प्रदाय में उसका स्थान हृदय तथा आकार कमल के समान माना है ।
(ख) वचनरूप में परिणत एक प्रकार के पुद्गल, जिन्हें भाषावणा कहते हैं, वे ही 'वचन' कहलाते हैं ।
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(ग) जिससे चलना-फिरना, खाना-पीना श्रादि हो सकता है, जो सुख-दुःख भोगने का स्थान है और जो औदारिक, वैक्रिय आदि वर्गणाओं से बनता है, वह 'शरीर' कहलाता है ।
(८) 'सम्यक्त्व'
इसका स्वरूप, विशेष प्रकार से जानने के लिए निम्नलिखित कुछ बातों का विचार करना बहुत उपयोगी है
(१) सम्यक्त्व सहेतुक है या निर्हेतुक ?
(२) क्षायोपशमिक आदि भेदों का आधार क्या है ।
(३) औपशमिक और क्षायोपशमिक सम्यक्त्व का आपस में अन्तर तथा क्षायिकसम्यक्त्व की विशेषता ।
(४) शङ्का - समाधान, विपाकोदय और प्रदेशोदय का स्वरूप ।
(५) क्षयोपशम और उपशम की व्याख्या तथा खुलासावार विचार ।
(१) सम्यक्त्व - परिणाम सहेतुक है या निर्हेतुक ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि उसको निर्हेतुक नहीं मान सकते; क्योंकि जो वस्तु निर्हेतुक हो, वह सब काल में, सब जगह, एक-सी होनी चाहिए अथवा उसका अभाव होना चाहिए । सम्यकृत्वपरिणाम, न तो सब में समान है और न उसका प्रभाव है। इसीलिए उसे सहेतुक ही मानना चाहिए । सहेतुक मान लेने पर यह प्रश्न होता है कि उसका
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