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एकेन्द्रिय
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आहार का अभिलाष, क्षुधावेदनीय कर्म के उदय से होनेवाला आत्मा का परिणाम- विशेष (व्यवसाय) है । यथा-
'आहारसंज्ञा आहाराभिलाषः क्षुद्वेदनीयोदयप्रभवः खल्वात्मपरिणाम इति ।"
- श्रावश्यक, हारिभद्री वृत्ति पृ० ५८० । इस अभिलाष रूप व्यवसाय में 'मुझे अमुक वस्तु मिले तो अच्छा', इस प्रकार का शब्द और अर्थ का विकल्प होता है । जो अध्यवसाय विकल्प सहित होता है, वही श्रुतज्ञान कहलाता है । यथा—
'इन्दियमणोनिमित्तं, जं विण्या सुयाणुसारेणं । निययत्थुत्तिसमत्थं तं भावसुयं मई सेसं ॥ १००॥ '
----विशेषावश्यक |
अर्थात् इन्द्रिय और मन के निमित्त से उत्पन्न होने वाला ज्ञान, जो "नियत अर्थ का कथन करने में समर्थ श्रुतानुसारी ( शब्द तथा अर्थ के विकल्प से युक्त ) है, उसे 'भावश्रुत' तथा उससे भिन्न ज्ञान को 'मतिज्ञान' समझना चाहिए । अब यदि एकेन्द्रियों में श्रुत उपयोग न माना जाए तो उनमें आहार का अभिलाष जो शास्त्र सम्मत है, वह कैसे घट सकेगा ? इसलिए बोलने और सुनने की शक्ति न होने पर भी उनमें अत्यन्त सूक्ष्म श्रुत- उपयोग अवश्य ही मानना चाहिए ।
भाषा तथा श्रवण्लब्धि वालों को ही भावश्रुत होता है, दूसरे को नहीं, इस शास्त्र - कथन का तात्पर्य इतना ही है कि उक्त प्रकार की शक्तिवाले को स्पष्ट भावश्रुत होता है और दूसरों को स्पष्ट ।
(७) ' योगमार्गणा '
तीन योगों के बाह्य और आभ्यन्तर कारण दिखा कर उनकी व्याख्या राजवार्तिक में बहुत ही स्पष्ट की गई है । उसका सारांश इस प्रकार है
(क) ह्य और आभ्यन्तर कारणों से होनेवाला जो मनन के श्रभिमुख श्रात्मा का प्रदेश परिस्पन्द, वह 'मनोयोग' है । इसका बाह्य कारण, मनोवर्गणा का आलम्बन और आभ्यन्तर कारण, वीर्यान्तरायकर्म का क्षय क्षयोपशम तथा नोइन्द्रियावरण कर्मका क्षय क्षयोपशम (मनोलब्धि ) है ।
(ख) बाह्य और आभ्यन्तर कारण - जन्य आत्मा का भाषाभिमुख प्रदेश-परिस्पन्द 'वचनयोग' है । इसका बाह्य कारण पुद्गलविपाकी शरीरनामकर्म के उदय से
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