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जैन धर्म और दर्शन किया । जो दिगम्बर व्याख्याकार हुए उन्होंने पौषध ऐसा संस्कृत रूप न अपनाकर पोसध का प्रौषध ही संस्कृत रूप व्यवहृत किया। इस तरह हम देखते हैं कि एक ही उपवसथ शब्द जुदे-जुदे लौकिक प्रवाहों में पड़कर उपोषथ, पोसह, पोसघ, पौषध, प्रौषध ऐसे अनेक रूपों को धारण करने लगा। वे सभी रूप एक ही कुटुम्ब के हैं।
पोसह आदि शब्दों का मात्र मूल ही एक नहीं है पर उसके विभिन्न अर्थों के पीछे रहा हुआ भाव भी एक ही है। इसी भाव में से पोसह या उपोसथ व्रत की उत्पत्ति हुई है। वैदिक-परंपरा यज्ञ-यागादिको मानने वाली अतएव देवों का यजन करने वाली है। ऐसे खास-खास यजनों में वह उपवास व्रत को भी स्थान देती है। अमावास्या और पौर्णमासी को वह 'उपवसथ' शब्द से व्यवहृत करती है। क्योंकि उन तिथियों में वह दर्शपौर्णमास नाम के यज्ञों का विधान करती है , तथा उसमें उपवास जैसे व्रत का भी विधान करती है । सम्भवतः इसलिए वैदिक परंपरा में अमावस्या और पौर्णमासीउपवसथ कहलाती हैं। श्रमण-परंपरा वैदिक परंपरा की तरह यज्ञ-याग या देवयजन को नहीं मानती। जहाँ वैदिक परंपरा यज्ञ-यागादि व देवयजन द्वारा
आध्यात्मिक प्रगति बतलाती है, वहाँ श्रमण-परंपरा आध्यात्मिक प्रगति के लिए एक मात्र आत्मशोधन तथा स्वरूप-चिन्तन का विधान करती है । इसके लिए श्रमण-परंपरा ने भी मास की वे ही तिथियाँ नियत की जो वैदिक-परंपरा में यज्ञ के लिए नियत थीं। इस तरह श्रमण-परंपरा ने अमावास्या और पौर्णमासी के दिन उपवास करने का विधान किया । जान पड़ता है कि पन्द्रह रोज के अन्तर को धार्मिक दृष्टि से लम्बा समझकर उसने बीच में अष्टमी को भी उपवास पूर्वक धर्मचिन्तन करने का विधान किया। इससे श्रमण-परंपरा में अष्टमी तथा पूर्णिमा और अष्टमी तथा अमावास्या में उपवास-पूर्वक आत्मचिन्तन करने की प्रथा चल पड़ी २ । यही प्रथा बौद्ध परंपरा में 'उपोसथ' और जैनधर्म पर. म्परा में 'पोसह रूप से चली आती है । परम्परा कोई भी हो सभी अपनी-अपनी दृष्टि से आत्म-शान्ति और प्रगति के लिए ही उपवास व्रत का विधान करती है । इस तरह हम दूर तक सोचते हैं तो जान पड़ता है कि पौषध व्रत की उत्पत्ति का मूल असल में आध्यात्मिक प्रगति मात्र है। उसी मूल से कहीं एक रूप में तो कहीं दूसरे रूप में उपवसथ ने स्थान प्राप्त किया है।
१. कात्यायन श्रौतसूत्र ४. १५. ३५. । २. उपासकदशांग अ०१. 'पोसहोववासस्स' शब्द की टीका.
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