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तार्किकके लक्षण प्रणयनमें बौद्ध लक्षणका भी असर आ गया जो जैन तार्किकोंके लक्षण प्रण्यन में तो बौद्धयुगके प्रारम्भसे हो आज तक एक-सा चला आया है ।
३- तीसरा नव्यन्याययुग उपाध्याय गंगेशसे शुरू होता है । उन्होंने अपने वैदिक पूर्वाचार्योंके अनुमान लक्षणको कायम रखकर भी उसमें सूक्ष्म परिष्कार' किया जिसका श्रादर उत्तरवर्ती सभी नव्य नैयायिकों ने ही नहीं बल्कि सभी वैदिक दर्शनके परिष्कारकों ने किया ! इस नवीन परिष्कारके समय से भारतवर्ष में बौद्ध तार्किक करीब-करीब नामशेष हो गए। इसलिए बौद्ध ग्रन्थों में इसके स्वीकार या खण्डनके पाये जानेका तो सम्भव ही नहीं पर जैन परम्परा के बारे. ऐसा नहीं है। जैन परम्परा तो पूर्वकी तरह नव्यन्यायअगसे आज तक भारतवषम चली आ रही है और यह भी नहीं कि नव्यन्याययुगके मर्मज्ञ कोई जैन ताकिं । हुए भी नहीं । उपाध्याय यशोविजयजी जैसे तत्वचिन्तामणि और अालोक
आदि नव्यन्यायके अभ्यासी सूक्ष्मज ताकिंक जैन परम्परामें हुए हैं फिर भी उनके तर्कभाषा जैसे ग्रन्थने नव्यन्याययुगीन परिष्कृत अनुमान लक्षणका स्वीकार या खण्डन देखा नहीं जाता। उपाध्यायजीने भी अपने तर्कभाषा जैसे प्रमाण विषयक मुख्य ग्रन्थमें अनुपानका ननण वही रखा है जो सभी पूर्ववर्ती श्वेताम्बर दिगम्बर तार्किकोंके द्वारा भान्य किया गया है।
श्राचार्य हेमचन्द्रने अनुमानका जो लक्षण किया है वह सिद्धसेन और अकलङ्क आदि प्राक्तन जैन तार्किकॊके द्वारा स्थापित और समर्थित ही रहा । इसमें उन्होंने कोई सुधार या न्यूनाधिकता नहीं की। फिर भी हेमचन्द्रीय अनुमान निरूपणमैं एक ध्यान देने योग्य विशेषता है। वह यह कि पूर्ववत्ती सभी जैन तार्किकोंने--जिनमें अभयदेव, वादी देवसूरि अादि श्वेताम्बर तार्किको का भी समावेश होता है-वैदिक परम्परा सम्मत त्रिविध अनुमान प्रणालीका साटोप खण्डन किया था, उसे प्रा० हेमचन्द्र ने छोड़ दिया। यह हम नहीं
१ 'सम्यगविनाभावेन परोक्षानुभवसाधनमनुमानम्'-न्यायसार पृ० ५। २ न्याया० ५। न्यायधि० २.१ । प्रमाणप० पृ० ७० । परी० ३. १४ ।
३ 'अतीतानागतधूमादिज्ञानेऽप्यनुमितिद रानान लिङ्ग त तुः व्यापारपूर्ववर्तितयोरभावात्......किन्तु व्याप्तिज्ञानं करणं परामर्शो व्यापार:'-तत्वचि० परामर्श पृ० ५३६-५० ।
४ सन्मतिटी० पृ० ५५६ । स्याद्वादर पृ० ५२७ ।
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