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व्याख्याकार नैयायिकोंने जैसे ईश्वरको जगत्स्रष्टा भी माना और वेद - प्रता भी, इसी तरह उन्होंने उसमें नित्यज्ञान की कल्पना भी की वैसे किसी भी प्राचीन वैदिक दर्शनसूत्रग्रन्थोंमें न तो ईश्वरका जगत्स्रष्टा रूपसे न वेदकर्त्ता रूपसे स्पष्ट स्थापन है और न कहीं भी उसमें नित्यज्ञानके अस्तित्वका उल्लेख भी है । श्रतएव यह सुनिश्चित है कि प्राचीन सभी प्रत्यक्ष लक्षणों का लक्ष्य केवल जन्य प्रत्यक्ष ही है । इसी जन्य प्रत्यक्षको लेकर कुछ मुद्दों पर यहाँ विचार प्रस्तुत है ।
१. लौकिकालौकिकता - प्राचीन समय में लक्ष्यकोटिमें जन्यमात्र ही निविष्ट था फिर भी चार्वाक के सिवाय सभी दर्शनकारोंने जन्य प्रत्यक्षके लौकिक अलौकिक ऐसे दो प्रकार माने हैं। सभीने इन्द्रियजन्य और मनोमात्रजन्य वर्त्तमान संबद्ध विषयक ज्ञानको लौकिक प्रत्यक्ष कहा है । अलौकिक प्रत्यक्षका वर्णन भिन्न-भिन्न दर्शनोंमें भिन्न-भिन्न नामसे है । सांख्य योग, न्यायवैशेषिक, और बौद्ध सभी अलौकिक प्रत्यक्षका योगि प्रत्यक्ष या योगि-ज्ञान नामसे निरूपण करते हैं जो योगजन्य सामर्थ्य द्वारा जनित माना जाता है ।
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मीमांसक जो सर्वज्ञत्वका खासकर धर्माधर्मसाक्षात्कारका एकान्त विरोधी है at भी मोक्षाङ्गभूत एक प्रकारके श्रात्मज्ञानका अस्तित्व मानता है जो वस्तुतः योगजन्य या अलौकिक ही है ।
वेदान्तमें जो ईश्वरसाक्षीचैतन्य है वही अलौकिक प्रत्यक्ष स्थानीय है ।
जैन दर्शनकी श्रागमिक परम्परा ऐसे प्रत्यक्षको ही प्रत्यक्ष कहती है ' क्योंकि उस परम्परा के अनुसार प्रत्यक्ष केवल वही माना जाता है जो इन्द्रियजन्य न हो। उस परम्परा के अनुसार तो दर्शनान्तरसंगत लौकिकप्रत्यक्ष प्रत्यक्ष नहीं पर परोक्ष है फिर भी जैन दर्शनकी तार्किक परम्परा प्रत्यक्षके दो प्रकार मानकर एकको जिसे दर्शनान्तरोंमें लौकिक प्रत्यक्ष कहा है सांव्यवहारिक
१. योगसू० ३ ५४ | सांख्यका० ६४ |
२. वैशे० ६.१.१३-१५ |
३. न्यायवि० १.११ ।
४. 'सर्वत्रैव हि विज्ञानं संस्कारत्वेन गम्यते पराङ्ग' 'चात्मविज्ञानादन्यत्रेत्यवधारणात् ॥ ' --तन्त्रवा० पृ० २४० ।
५. तत्त्वार्थ० १. २२ ।
६. तवार्थ० १.११ ।
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