________________
प्राचीन साहित्य श्रेणी 3
परमात्मा महावीर जन्मकल्याणक पर जयसागरोपाध्याय विरचिता
श्री महावीर विनती
कृति परिचय,
तीर्थंकर परमात्मा की आराधना चतुर्विध संघ में सामूहिक एवं व्यक्तिगत रूप से प्रतिदिन अनेक बार की जाती है। वे हमारे साध्य हैं। उनकी आराधना के द्वारा हमें उनके जैसा बनना है।
उत्तराध्ययन सूत्र में परमात्मा महावीर ने स्तवन करने से जीव क्या प्राप्त करता है? इसके उत्तर में फरमाया है
धयथुमंगणं भंते! जीवे किं जणयह?
थयथुइमंगलेणं नाणदंसण- चरित्तबोहिलाभं जणय | नाणदंसण चरित्तबोहिलाभसंपण्णे य जीवे अंतकीरियं कप्पविमाणोववत्तिय आराहणं आराहेड
अर्थात् स्तव, स्तुति मंगल से जीव को ज्ञान, दर्शन, चारित्र, बोधिलाभ की प्राप्ति होती है एवं ज्ञान, दर्शन, चारित्र, बोधिलाभ से युक्त आत्मा आराधनायुक्त बनता है। उस आराधना से अंतःक्रिया मोक्ष को प्राप्त करता है, भवितव्यता परिपक्व न हुई हो तो सौधर्मादि वैमानिक देवलोक में आरोहण करता है फिर मुक्ति सुख को प्राप्त होता है।
प्रस्तुत महावीर विनती स्तवन में उपाध्याय प्रवर श्री जयसागरजी महाराज ने अपभ्रंश भाषा में परमात्मा को अनेक उपमाओं के द्वारा मंडित करते हुए वंदना की है। भाषा लालित्य की दृष्टि से यह कृति मनोहर है। सरल व सरस होने से सामूहिक गेय भी है। स्तवन का संक्षिप्त सार इस प्रकार है
चौसठ इंद्र जिनकी नित्य सेवा करते है ऐसे श्री वीर जिनेश्वर देव की जय हो, मिथ्यात्व और भ्रम को दूर करने व कल्याण की प्राप्ति के लिए आपके चरणों नतमस्तक हूँ।
कोटि भवों में भटकते हुए जीवों को तारने वाले, विषम अंधकार को नष्ट करने में सूर्य के समान परमात्मा महावीर स्वामी सज्जनों के लिए आशास्थान
हैं।
सकल दुःख रूपी ताप को हरने वाले, प्रवर संवर को धारण करने वाले, भव्य जनों रूपी मोर के
संपादक : मणिगुरु चरणरज आर्यमेमसागर
समूह के लिए प्रमोदकारक और कल्याण- सुख-संपदा रूपी लता को बढाने वाले जलधर के समान परमात्मा महावीर की जय हो ।
भव भव में घूमते हुए जन-प्रवाह के वशीभूत मैंने झूठ-कपट अनेकों बार किये, अब आपके चरणों में आया हूँ कृपा कर मुझ पर सौम्य दृष्टि कीजिये ।
चार गति रूप संसार में घूमते हुए दोषवश अनेक दुःखों को सहन किया, उन दुःखों को हीन बातें आपको कैसे कहूँ कर्म की गति को धिक्कार हो।
क्षण में रागी, क्षण में विरागी, क्षण में मदन में मत्त तो दूसरे क्षण में दु:खी ऐसा कषाय रूपी मोहनीय कर्म से छलित होकर चक्र की तरह स्वर्ग, पाताल, योनि, जाति, कुल आदि कोई स्थान नहीं जहां पूर्व कर्मों के कारण भ्रमण नहीं किया हो।
जग को शरण देने वाले आपको प्राप्त कर अब मेरी सफल आशा है कि आप भव रूपी दुःखजाल को नष्ट करोगे।
नानाविध भवों में भटकते हुए एकमात्र आपको देव के रूप में देखा है, आपके चरण रूपी कमलों में आया हूँ, अब मुझे भवसागर से पार कीजिये ।
सुलसा, रेवती और श्रेणिक को आपने अपनी ऋद्धि प्रदान की। आपका संगम निष्फल नहीं हो सकता अतः मुझे भी एक बार वैसी सिद्धि दीजिये ।
आषाढ सुदि षष्ठी को च्यवन से और चैत्र शुक्ला त्रयोदशी की रात्रि को जन्म से जगत में आनंद हुआ। मार्गशीर्ष कृष्णा दशमी को चारित्र अंगीकार किया । वैशाख शुक्ला दशमी के दिन केवलज्ञान की संपत्ति को प्राप्त किया।
कार्त्तिक अमावस्या को शिव- रमणी के साथ आपने पाणिग्रहण किया, उस शिव- रमणी को मात्र एकबार देखने की उत्कट अभिलाषा है, कृपा कर मेरी अभिलाषा पूर्ण कीजिये ।
इस प्रकार वीर जिनेश्वर का स्तवन करने से मेरा पूरा दिन सफल हुआ। उनके चरणों में जो वंदन करते है वे बोधिलाभ को प्राप्त कर चिरकाल तक आनंद करते हैं।
11 | जहाज मन्दिर • अप्रेल 2017