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विजयार्द्ध के दक्षिण में, लवण समुद्र के उत्तर में और गंगा-सिंधु नदियों के मध्य में आर्य खण्ड है। स्वर्ग, लक्ष्मी और मुक्ति के सुख का आधार यह उत्तम आर्य खण्ड ही है, अतः यहाँ आर्यजन अपने तपोबल से स्वर्ग ओर मोक्ष का साधन करते हैं। आर्यखण्ड के पूर्व-पश्चिम भाग में, विजयार्द्ध उत्तर दिशा में धर्म आचरण से रहित पाँच म्लेच्छ खण्ड हैं, जिनमें धर्म-कर्म से बहिर्भूत, नीचकुल में समन्वित, विषयासक्त और दुर्गति पाने वाले म्लेच्छ जीव रहते हैं। आर्यखण्ड के मध्य में श्रेष्ठ अयोध्या नगरी है। अन्य छह क्षेत्र :
हेमवत् शाश्वत जघन्य भोगभूमि है। जो जीव यहाँ उत्पन्न होते हैं उन्हें दस प्रकार के कल्पवृक्ष संकल्प मात्र से 10 प्रकार के उत्तम भोग देते हैं। इसके बीच में शब्दवान् नाम का वृत वेताढ्य पर्वत हैं। यह पर्वत क्षेत्र के ठीक मध्य में स्थित रहने के कारण एवं वृताकार होने के कारण इसे नाभिगिरी कहते हैं। हैरेण्यवत भी हेमवत् के समान जघन्य भोगभूमि है।
हरिक्षेत्र में सिंह के समान शुक्ल रूप वाले मनुष्य रहते हैं। इसके बीच में विकृतमान नाभि पर्वत है। इसमें अरूणदेव का विहार है। इसमें शाश्वतिक मध्यम भोगभूमि की रचना रहती है। रम्यक क्षेत्र हरि क्षेत्र के समान है।
विदेह श्रेत्र में रहने वाले मनुष्य सदा विदेह अर्थात् कर्मबंध उच्छेद के लिए यत्न करते रहते हैं। यहाँ कभी भी धर्म का उच्छेद नहीं होता। विदेह क्षेत्र पूर्व विदेह, अपर विदेह, उतर कुरू और देवकुरू, इन चार भागों में विभाजित है। विदेह के मध्य भाग में मेरू पर्वत है, उसकी चारों दिशाओं में चार वक्षार पर्वत हैं। उत्तर कुरू क्षेत्र में जामुन वृक्ष के आकार का शाश्वत पृथ्वीकाय एक महान जम्बूवृक्ष स्थित है। इस जम्बूवृक्ष की शाखाओं पर यक्ष कुल में उत्पन्न आदर, अनादर देवों के आवास हैं। सुदर्शन मेरू की नैऋत्य दिशा मे सीतोदा नदी के पश्चिम तट पर देवकुरू क्षेत्र में शाल्मली वृक्ष है। यहाँ गरूढ़ कुल में उत्पन्न वेणु नाम के महान देव निवास करते हैं।
विदेह क्षेत्र में वर्षा ऋतु में कुल 133 दिन मर्यादापूर्वक वर्षा होती है, वहाँ कभी दुर्भिक्ष नही पड़ता। पशु पक्षियों के रोग नहीं होतें। ये देश, कुदेव, कुलिंग (अर्थात्, जिन लिंग से भिन्न लिंग) और कुमत से रहित तथा केवल ज्ञानियों, तीर्थंकर आदि शलाका पुरूषों और ऋद्धि सम्पन्न साधुओं से निरन्तर समन्वित रहते हैं। प्रत्येक देश में एक-एक विजयार्द्ध पर्वत है। विदह क्षेत्र में उत्पन्न होने वाले निपूण जन धर्म के प्रभाव से 16 स्वर्ग पर्यन्त जाते हैं। कोई भद्र परिणामी गृहस्थ पात्रदान के प्रभाव से भोगभूमि में उत्पन्न होते हैं, कोई बुद्धिमान जन जिनेन्द्र भगवान की पूजा, स्तुति एवं भक्ति के द्वारा इन्द्र पद प्राप्त करते हैं। बहुत प्रकार के भोगों को भोगने वाले जो विवेकी देव स्वर्ग में पूण्यकर्मा हैं, वे वहाँ से चय होकर स्वर्ग और मोक्ष की सिद्धी के लिए विदेह क्षेत्रस्थ उत्तम कुलो में जन्म लेते हैं। इसी प्रकार की व्यवस्था धातकी खण्ड और पुष्करार्धगत विदेह क्षेत्रों में होती है।
उत्तर कुरू और देव कुरू उत्कृष्ट भोग भूमियाँ हैं। उत्तम क्षेत्र के सद्भाव से वहाँ के जीवों को रोग नहीं होता, न वहाँ भय है, न ग्लानि हैं, न अकाल मृत्यु है, न दीनता है, न वेदना है, न निहार होता है और न छह ऋतुओं का संचार होता है न अनिष्ट का संयोग होता हैं, न इष्ट का वियोग होता है न अपमान आदि का दुःख है और न ही अन्य किंचित द्रव्य वहाँ प्राप्त होते हैं। वे जीव कल्पवृक्षों से उत्पन्न होने वाले भोगों को निरन्तर भोगते हैं। वहाँ पर स्त्री पुरूष युगल रूप में एक साथ उत्पन्न होते हैं और एक ही साथ मरते हैं। भोग भूमि के जीव सरल परिणामी होने से मरण के बाद देवगति को ही प्राप्त करते हैं। सुमेरू पर्वत
सुदर्शन मेरू की जड़ चित्रा पृथ्वी को भेदकर एक हजार योजन नीचे तक गई है। जड़ के नीचे मेरू का व्यास 10090 10/11 योजन और इसकी परिधि का परिमाण 31910 2/11 योजन हैं। पृथ्वी तल