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________________ की वनस्पतियाँ हैं। अतः प्रत्येक वनस्पति तो भक्ष्य की गणना में है, और अनन्तकाय कन्द-मूल अभक्ष्य की गणना में। परन्तु जीवों की न्यूनाधिक संख्या का यह भक्ष्याभक्ष्य सम्बन्धी विचार प्राचीन आगमकाल का न होकर उत्तरकाल का है। जैनधर्म निवृत्ति पर बल देता है। अतः वह साधक को इच्छा-निरोध के लिए प्रेरित करता है। भोगोपभोग की जितनी कम इच्छा एवं अपेक्षा होगी, उतनी ही उसके तत्संबंधी राग-द्वेष के विकल्प कम होंगे। फलतः आश्रव एवं बन्ध का दायरा कम होगा, और संवर एवं निर्जरा का दायरा बढ़ेगा। आश्रव एवं बन्ध अध र्म है। उसके विपरीत संवर एवं निर्जरा धर्म हैं, मोक्ष का मार्ग है। यहाँ तक तो ठीक है। साधक को अपनी आहारेच्छा पर, जितना भी हो सके, नियन्त्रण करना ही चाहिए। परन्तु यह नियन्त्रण इच्छा एवं आसक्ति के आधार पर होना चाहिए, न कि निषेध के अति उत्साह में भक्ष्याभक्ष्य जैसे शब्दों के आधार पर। मांस आदि के लिए तो अभक्ष्य शब्द का प्रयोग उपयुक्त है, किन्तु जीवों की गणना के आधार पर वनस्पति-आहार के लिए उक्त शब्द का प्रयोग उपयुक्त नहीं है। ___बात यह है कि जो अभक्ष्य है, वह अभक्ष्य ही है, कस्तुरी मुक्तापिष्टि आदि के रूप में कुछ अमुक आपवादिक स्थितियों को छोड़कर। हल्दी, सौंठ, अदरक आदि स्पष्ट ही अनन्त काय कन्दमूल हैं। प्रश्न है, कन्दमूल को एकान्त अभक्ष्य कहने वाले और उपयोग न करने वाले हल्दी आदि का उपयोग मुक्त रूप से कैसे करते हैं? गृहस्थ ही नहीं, साधु-साध्वी भी करते हैं। समाधान दिया जाता है कि वे शुष्क अर्थात् सूख जाते हैं, तब अचित्त होने से उपयोग में लिए जाते हैं। मैं पूछता हूँ, क्या पक्व होने और सूख जाने पर अभक्ष्य, भक्ष्य हो जाता है। बात कड़वी है, पर सत्य की स्पष्टता के लिए कहना ही होगा कि तब तो मांस आदि अभक्ष्य भी पक जाने या सूख जाने पर भक्ष्य हो जाएँगे। किन्तु ऐसा है नहीं। अतः स्पष्ट है कि अनन्तकाय कन्दमूल वनस्पतियाँ, अनन्त जीवात्मक होने के नाते अभक्ष्य नहीं है। अभक्ष्य की मान्यता वाले अनन्तकाय हल्दी, अदरक आदि कन्दमूल को, गीले या सूखे किसी भी रूप में नहीं खा सकते है। असंख्य और अनन्त की गणना में क्या अन्तर है? असंख्य में यदि एक संख्या भी बढ़ जाए, तो वह असंख्य से अनन्त की परिधि में आ जाता है। इसलिए अन्य दर्शन असंख्य और अनन्त में कोई भेद नहीं करते हैं। प्रश्न है, असंख्य तक तो भक्ष्य है, और मात्र एक जीव की वृद्धि होते ही वह अभक्ष्य कैसे कन्दमूल भक्ष्याभक्ष्य मीमांसा 163 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.212407
Book TitleKandmul Bhakshya Bhakshya Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherZ_Pragna_se_Dharm_ki_Samiksha_Part_02_003409_HR.pdf
Publication Year2009
Total Pages9
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size738 KB
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