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________________ अतीत के इस स्वर्णिम चित्र के समक्ष जब हम वर्तमान भारतीय जीवन का चित्र देखते हैं, तो मन सहसा विश्वास नहीं कर पाता कि क्या यह इसी भारत का चित्र है ? कहीं हम धोखा तो नहीं खा रहे हैं ? लगता है, इतिहास का वह साक्षात् घटित सत्य आज इतिहास की गाथा बनकर ही रह गया है। आज का मनुष्य कटी हुई पतंग की तरह दिशा-हीन उड़ता जा रहा है। जिसे न तो कहीं रुकने की फुर्सत है, और न सामने कोई मञ्जिल ही है। अपने क्षुद्र स्वार्थ, दैहिक भोग और हीन मनोग्नन्थियों से वह इस प्रकार ग्रस्त हो गया है कि उसकी विराटता, उसके अतीत आदर्श, उसकी अखण्ड राष्ट्रिय भावना सब कुछ छुई-मुई हो गई है। भारतीय चिन्तन ने मनुष्य के जिस विराट रूप की परिकल्पना की थी--'सहस्र-शीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात्" वह आज कहाँ है ? हजारों-हजार मस्तक, हजारों-हजार आँखें और हजारों-हजार चरण मिलकर जो अखण्ड मानवता निर्मित होती थी, जिस अखण्ड राष्ट्रिय-चेतना का विकास होता था, आज उसके दर्शन कहाँ हो रहे हैं? आज की संकीर्ण मनोवृत्तियाँ देखकर मन कुलबला उठता है। क्या वास्तव में ही मानव इतना क्षद्र और इतना दीन-हीन होता जा रहा है कि अपने स्वार्थों और अपने कर्तव्यों के प्राय पूर्णविराम लगाकर बैठ गया है। आपसे आगे आपके पड़ोसी का भी कुछ स्वार्थ है, कुछ हित है; समाज, देश और राष्ट्र के लिए भी आपका कोई कर्तव्य होता है, इसके लिए भी सोचिए । चिन्तन का द्वार खुला रखिए। आपका चिन्तन, आपका कर्तव्य, आपका हित, आपके लिए केवल बीच के अल्पविराम से अधिक नहीं है, अगर आप उसे ही पूर्णविराम समझ बैठे हैं, इति लगा बैठे है, तो यह भयानक भूल है। भारत का दर्शन 'नेति नेति' कहता आया है। इसका अर्थ है कि जितना आप सोचते हैं और जितना आप करते हैं, उतना ही सब कुछ नहीं है, उससे आगे भी अनन्त सत्य है, कर्तव्य के अनन्त क्षेत्र पड़े हैं। किन्तु आज हम यह सन्देश भूलते जा रहे हैं और हर चिन्तन और कर्तव्य के प्रागे 'इति-इति' लगाते जा रहे हैं। यह क्षद्रता, यह बौनापन आज राष्ट्र के लिए सबसे बड़ा संकट है। म्रष्टाचार किस संस्कृति की उपज है ? मैं देखता हूँ-आजकल कुछ शब्द चल पड़े हैं-'भ्रष्टाचार, बेईमानी, मक्कारी, काला बाजार'---यह सब क्या है ? किस संस्कृति की उपज है यह ? जिस अमृत कुण्ड की भावधारा से सिंचन पाकर हमारी चेतना और हमारा कर्तव्य क्षेत्र उर्वर बना हया था, क्या आज वह धारा सूख गई है ? त्याग, सेवा, सौहार्द और समर्पण की फसल जहाँ लहलहाती थी, क्या आज वहाँ स्वार्थ, तोड़फोड़, हिंसा और बात-बात पर विद्रोह की कँटीली झाड़ियाँ ही खड़ी रह गई है ? देश में आज बिखराव और अराजकता की भावना फैल रही है, इसका कारण क्या है? ___मैं जहाँ तक समझ पाया हूँ, इन सब अव्यवस्थाओं और समस्याओं का मूल है-- हमारी आदर्श-हीनता। मुद्रा के अवमूल्यन से आर्थिक क्षेत्र में जो उथल-पुथल हुई है, जीवन के क्षेत्र में उससे भी बड़ी और भयानक उथल-पुथल हुई है आदर्शों के अवमूल्यन से। हम अपने आदर्शों से गिर गए है, जीवन का मल्य विघटित हो गया है, राम, कृष्ण, महावीर और बुद्ध के आदर्शों का भी हमने अवमूल्यन कर डाला है। बस, इस अवमूल्यन से ही यह गड़बड़ हुई है, यह अव्यवस्था पैदा हुई है। महात्मा गाँधी मजबरी का नाम ? एक बार एक सज्जन से चर्चा चल रही थी। हर बात में वे अपना तकियाकलाम दुहराते जाते थे, 'महाराज ! क्या करें, मजबूरी का नाम महात्मा गांधी है।' इसके बाद अन्यत्र भी यह दुर्वाक्य कितनी ही बार सुनने में आया है। मैं समझ नहीं पाया, क्या मतलब हुआ इसका ? क्या महात्मा गान्धी एक मजबूरी की उपज थे ? गान्धी का दर्शन, जो प्राचीन राष्ट्रिय जागरण ४१७ www.jainelibrary.org Jain Education Interational For Private & Personal Use Only
SR No.212394
Book TitleRashtriya Jagaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherZ_Panna_Sammikkhaye_Dhammam_Part_01_003408_HR.pdf
Publication Year1987
Total Pages5
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size630 KB
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