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________________ निकल कर नीतिपूर्ण मर्यादित मानव-जीवन को अंगीकार करने का साधन है । जैन धर्म में विवाह के लिए जगह है, परन्तु पशु-पक्षियों की तरह भटकने के लिए जगह नहीं है । वेश्यागमन और पर-दार सेवन के लिए कोई जगह नहीं है और इस रूप में जैन धर्म जनचेतना के समक्ष एक महान् आदर्श उपस्थित करता है । ब्रह्मचर्य की साधना : ब्रह्मचर्य जीवन की साधना है, अमरत्व की साधना है। महापुरुषों ने कहा हैब्रह्मचर्य जीवन है, वासना मृत्यु है । ब्रह्मचर्य अमृत है, वासना विष है । ब्रह्मचर्य अनन्त शान्ति है, अनुपम सुख है । वासना प्रशांति एवं दुःख का अथाह सागर है । ब्रह्मचर्य शुद्ध ज्योति है, वासना कालिमा । ब्रह्मचर्य ज्ञान - विज्ञान है, वासना भ्रान्ति एवं प्रज्ञान । ब्रह्मचर्यं अजेय शक्ति है, अनन्त बल है, वासना जीवन की दुर्बलता, कायरता एवं नपुंसकता । ब्रह्मचर्य, जीवन की मूल शक्ति है। जीवन का प्रोज है। जीवन का तेज है । ब्रह्मचर्य सर्वप्रथम शरीर को सशक्त बनाता है । वह हमारे मन को मजबूत एवं स्थिर बनाता है । हमारे जीवन को सहिष्णु एवं सक्षम बनाता है । क्योंकि आध्यात्मिक साधना के लिए शरीर का सक्षम एवं स्वस्थ होना आवश्यक है । वस्तुतः मानसिक एवं शारीरिक क्षमता प्राध्यात्मिक साधना की पूर्व भूमिका है। जिस व्यक्ति के मन में अपने आपको एकाग्र करने की, विचारों को स्थिर करने की तथा शरीर में कष्टों एवं परीषहों को सहने की क्षमता नहीं है, पत्तियों की संतप्त दुपहरी में हँसते हुए आगे बढ़ने का साहस नहीं है, वह आत्मा की शुद्ध ज्योति का साक्षात्कार नहीं कर सकता। भारतीय संस्कृति का यह वज्र घोष रहा है कि - "जिस शरीर में बल नहीं है, शक्ति नहीं है, क्षमता नहीं है, उसे आत्मा का दर्शन नहीं होता ।"" सबल शरीर में ही सबल आत्मा का निवास होता है । इसका तात्पर्य इतना ही है कि परीषहों की आंधी में भी मेरु समान स्थिर रहने वाला सहिष्णु व्यक्ति ही आत्मा के यथार्थ स्वरूप को पहचान सकता है । परन्तु कष्टों से डर कर पथ भ्रष्ट होने वाला कायर व्यक्ति आत्म-दर्शन नहीं कर सकता । ब्रह्मचर्य के आधार बिन्दु : ब्रह्मचर्य की साधना 'लिए और उसकी परिपूर्णता के लिए शास्त्रकारों ने कुछ साधन एवं उपायों का वर्णन किया है, जिनके अभ्यास से साधारण-से- साधारण साधक भी ब्रह्मचर्य का पालन प्रासानी से कर सकता है । उचित अभ्यास एवं सावधानी के अभाव में कभी-कभी ब्रह्मचर्य की साधना में बड़े-बड़े योगी, ध्यानी और तपस्वी भी विचलित हो जाते हैं । इस प्रकार के एक नहीं, अनेक उदाहरण शास्त्रों में आज भी उपलब्ध होते हैं । फिर भी साधक को हताश और निराश होने की आवश्यकता नहीं है। जो मनुष्य भूल कर सकता है, वह अपना सुधार भी कर सकता है। जो मनुष्य पतन के मार्ग पर चला है, वह उत्थान के मार्ग की प्रोर भी चल सकता है। जो मनुष्य आज दुर्बल है, कल वह सबल भी हो सकता है। मनुष्य के जीवन का पतन तभी होता है, जब वह अपने अन्दर के आध्यात्म भाव को भूलकर, बाहर के लुभावने एवं क्षणिक भोग-विलास में फँस जाता है । विषयासक्त मनुष्य किसी भी प्रकार की अध्यात्म-साधना करने में सफल नहीं होता, क्योंकि उसके मानस में वासनाओं, कामनाओं और विभिन्न विकल्पनाओं का ताण्डव नृत्य होता रहता है । जो व्यक्ति नाना प्रकार के विकल्प और विकारों में फँसा रहता है, वह ब्रह्मचर्य तो क्या, किसी भी साधना में सफल नहीं हो सकता । १. नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः -- मुण्डकोपनिषद्, ३।२।४ । ब्रह्मचर्य : साधना का सर्वोच्च शिखर Jain Education International For Private & Personal Use Only २६५ www.jainelibrary.org.
SR No.212380
Book TitleBramhacharya Sadhna Ka Sarvoccha Shikhar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherZ_Panna_Sammikkhaye_Dhammam_Part_01_003408_HR.pdf
Publication Year1987
Total Pages18
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size1 MB
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