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जैन- दृष्टि में ब्रह्मचर्य :
जैन दर्शन में ब्रह्मचर्य शब्द के लिए मैथुन - विरमण और शील शब्द का प्रयोग विशेष रूप से उपलब्ध होता है। 'सूत्रकृतांग सूत्र' की आचार्य शीलांक कृत संस्कृत टीका में, ब्रह्मचर्य की व्याख्या इस प्रकार की गई है - "जिसमें सत्य, तप, भूत-दया और इन्द्रिय निरोध रूप ब्रह्म की चर्या - अनुष्ठान हो, वह ब्रह्मचर्य है ।" वाचक उमास्वाति के 'तत्त्वार्थ सूत्र' ६-६ भाष्य में गुरुकुल वास को ब्रह्मचर्य कहा गया है । ब्रह्मचर्य का उद्देश्य बताया है, व्रत- परिपालन, ज्ञानवृद्धि और कषाय-जय । भाष्य में मैथुन शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार की है - स्त्री और पुरुष का युगल मिथुन कहलाता है। मिथुन का कर्म मैथुन है ।
गीता में कहा गया है कि जो साधक परमात्व-भाव को अधिगत करना चाहता है, उसे ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करना चाहिए । बिना इसके परमात्व-भाव की साधना नहीं की जा सकती। क्योंकि विषयासक्त मनुष्य का मन बाहर में इन्द्रियजन्य भोगों के जंगल में ही भटकता रहता है, वह अन्दर की ओर नहीं जाता । अन्तर्मुख मन ही ब्रह्मचर्य का साधक हो सकता है । विषयोन्मुख मन सदा चञ्चल बना रहता है ।
ब्रह्मचर्य की परिधि :
भारतीय धर्म और संस्कृति में, साधना के अनेक मार्ग विहित किए गए हैं, किन्तु सर्वाधिक श्रेष्ठ और सबसे अधिक प्रखर साधना का मार्ग, ब्रह्मचर्य की साधना है । ' ब्रह्मचर्य' शब्द में जो शक्ति, जो बल, और जो पराक्रम निहित है, वह भाषाशास्त्र के किसी अन्य शब्द में नहीं है । वीर्य-रक्षा ब्रह्मचर्य का एक स्थूल रूप है । ब्रह्मचर्य, वीर्य - रक्षा से भी अधिक कहीं गम्भीर एवं व्यापक है । भारतीय धर्मशास्त्रों में ब्रह्मचर्य के तीन भेद किए गए हैं-कायिक, वाचिक और मानसिक । इन तीनों प्रकारों में मुख्यता मानसिक ब्रह्मचर्य की है । यदि मन में ब्रह्मचर्य नहीं है, तो वह वचन में एवं शरीर में कहाँ से आएगा। जो व्यक्ति अपने मन को संयमित नहीं रख सकता, वह कभी भी ब्रह्मचर्य की साधना में सफल नहीं हो सकता । ब्रह्मचर्य की साधना एक वह साधना है, जो अन्तर्मन में अल्प विकार के प्राने पर भी खण्डित हो जाती है। महर्षि पतञ्जलि ने अपने 'योग- शास्त्र' में ब्रह्मचर्य की परिभाषा करते हुए बताया है कि, " ब्रह्मचर्य-प्रतिष्ठायां वीर्य-लाभः " । इसका अर्थ है कि जब साधक मन में, वचन ने और तन में, ब्रह्मचर्य प्रतिष्ठित हो जाता है, स्थिर हो जाता है, तब उसे वीर्य का लाभ मिलता है, शक्ति की प्राप्ति होती है । ब्रह्मचर्य की महिमा प्रदर्शित करने वाले उपर्युक्त योग सूत्र में प्रयुक्त वीर्य शब्द की व्याख्या करते हुए, टीकाकारों एवं भाष्यकारों ने वीर्य का अर्थ शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक सभी तरह की शक्ति एवं बल किया है। यह ब्रह्मचर्य का तेजस्वी तत्त्व है ।
भोजन और ब्रह्मचर्य :
ब्रह्मचर्य की साधना के लिए साधक को अपने भोजन पर विचार करना चाहिए । भोजन का और ब्रह्मचर्य का परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध है । श्रायुर्वेद-शास्त्र के अनुसार यह कहा गया है कि मनुष्य के विचारों पर उसके भोजन का पर्याप्त प्रभाव पड़ता है । मनुष्य जैसा भोजन करता है, उसी के अनुसार विचार बनते हैं और जैसे उसके विचार होते हैं, उसी के अनुसार उसका आचरण होता है। लोक में भी कहावत है कि - 'जैसा श्राहार, वैसा विचार और जैसा अन्न वैसा मन ।' इन कहावतों में जीवन का गहरा तथ्य छुपा हुआ है। मनुष्य जो कुछ और जैसा भोजन करता है, उसका मन वैसा ही अच्छा या बुरा बनता है। क्योंकि भुक्त भोजन से जीवन के मूलतत्त्व रुधिर की उत्पत्ति होती है और इसमें वे ही गुण प्राते हैं, जो गुण भोजन में होते हैं। भोजन हमारे मन और बुद्धि के अच्छे और बुरे होने में निमित्त बनता है । इसी आधार पर भारतीय संस्कृति में यह कहा गया है।
ब्रह्मचर्य : साधना का सर्वोच्च शिखर
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