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________________ में अस्तेय व्रत की प्रतिष्ठा कायम करने के लिए कृपणों को अपनी कृपणता त्याग देनी चाहिए और इसके बदले में उदारता प्रकट करनी चाहिए। चोरी के प्रमुख चार प्रकार होते हैं-द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव । द्रव्य से चोरी करना यानि वस्तुओं की चोरी। सजीव और निर्जीव-दोनों प्रकार की चोरी द्रव्य चोरी कही जाती है। किसी के पशु चुरा लेना या किसी की स्त्री का अपहरण कर लेना, किसी का बालक चरा लेना या किसी के फलफल तोडना, यह सजीव चोरी है। सोना-चाँदी हीरा, माणिक, मोती आदि की चोरी, निर्जीव चोरी है। कर की चोरी का भी निर्जीव चोरी में समावेश होता है। जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, मार्ग में पड़ी हुई ऐसी कोई निर्जीव वस्तु, जिसका कोई मालिक न हो, उठा कर ले लेना भी चोरी है। किसी के घर या खेत पर अनुचित रीति से अपना अधिकार कर लेना, यह क्षेत्र की चोरी है। एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र पर आक्रमण करके उसे अपने कब्जे में कर लेता है या उसके साधनों को, आर्थिक स्रोतों को हड़प लेता है—यह भी क्षेत्र-चोरी के अन्तर्गत है। वेतन, किराया, ब्याज आदि देने-लेने के समय नियत समय की न्यूनाधिकता करना काल की चोरी है। जो समय, जिस कर्तव्य के अनुष्ठान का है, उसे निश्चित समय पर न करना, काल की चोरी है। इसका अर्थ है-पालस्य, प्रमाद, उपेक्षा आदि किसी-नकिसी रूप में चोरी है। किसी कवि, लेखक या वक्ता के भावों को, विचारों को लेकर अपने नाम से लिखना, प्रकाशित करना भाव-चोरी है। चोरी का विचार करना भी भाव-चोरी है। भाव-चौर्यकर्म का क्षेत्र व्यापक है। एक लेखक ने लिखा है- "He who purposely cheats his friends, would cheat his God". अर्थात् जो व्यक्ति अपने मित्र को धोखा देता है, ठगता है, वह एक दिन ईश्वर को भी ठगेगा। दूसरे एक लेखक ने लिखा है---"Dishonesty is a for Saking of permanent for temporary advantages" अर्थात अप्रामाणिकता या चोरी करना, यह क्षणिक लाभ के लिए शाश्वत श्रेय को गुम कर देने जैसा है। अपने हक के अतिरिक्त की वस्तु, चाहे जिस किसी प्रकार से ले लेना चोरी है। कोई सरकारी नौकर-आफीसर किसी का कोई काम करके रिश्वत या इनाम ले तो यह भी चोरी है। जबकि उनकी नौकरी उसी काम के लिए है, तो फिर निर्धारित वेतन के अतिरिक्त रिश्वत आदि लेना चोरी ही है। अपने असाध्य रोग की खबर हो, फिर भी बीमा कराना, यह भी एक तरह की चोरी है। यह स्पष्ट ही अनैतिक कर्म है, बीमा कम्पनी को ठगना है। आये दिनों चोरियों की प्रकारता बढ़ती जा रही है। चोरी का पाप चोरी करने वाले को तो लगता ही है, परन्तु प्रत्यक्ष नहीं, तो परोक्ष रूप में वे व्यक्ति भी इस पाप-कर्म के कम भागीदार नहीं होते, जो समाज की परिस्थिति की तरफ ध्यान नहीं देते। अाँखमुंद कर निरन्तर अनावश्यक संग्रह में ही लगे रहते हैं। आज एक अोर कारखाने अधिकाधिक माल पैदा कर रहे हैं, तो दूसरी ओर कृत्रिम अभाव की स्थिति पैदा कर उद्योगपति और श्रीमन्तों की शोषण-नीति और संग्रह-वृत्ति प्रतिदिन चोरी के नय-नये तरीके पैदा कर रही है। चोरी का अन्तरंग कारण : यदि चोरी का अन्तरंग कारण खोजेंगे, तो प्रतीत होगा कि उसका मूल मानव की बेलगाम बढ़ती हुई अर्थ-लोलुपता में ही स्थित है। जिसके पास आज सौ रुपये है, वह हजार कमाने की धुन में है। हजार रुपये वाला, दस हजार और दस हजार वाला उसे लाख करने की लालसा में फंसा हुआ है। पैसों की इस दौड़-धूप में मनुष्य नीति और पन्ना समिक्खए धम्म २८६ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.212379
Book TitleAstey Vrat Aadarsh Pramanikta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherZ_Panna_Sammikkhaye_Dhammam_Part_01_003408_HR.pdf
Publication Year1987
Total Pages4
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size597 KB
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