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________________ टूटता है और उसे तोड़ कर पक्षी बाहर आता है। इस प्रकार पक्षी का पहला जन्म अण्डे के रूप में होता है, और दूसरा जन्म खोल तोड़ने के बाद पक्षी के रूप में होता है। पक्षी अपने पहले अंडे के जन्म में कोई काम नहीं कर सकता---ऊँची उड़ान नहीं भर सकता। विकसित पक्षी के रूप में दूसरा जन्म प्राप्त करने के पश्चात् ही वह लम्बी और ऊँची उड़ान भरता है। इसी प्रकार माता के उदर से प्रसूत होना मनुष्य का प्रथम जन्म है। कुछ पुरातन कर्म-संस्कार उसकी आत्मा के साथ थे, उनकी बदौलत उसने मनुष्य का चोला प्राप्त कर लिया। मनुष्य का चोला पा लेने के पश्चात्, वह राम बनेगा या रावण, उस चोले में शैतान जन्म लेगा या मनुष्य अथवा देवता--यह नहीं कहा जा सकता। उसका वह रूप साधारण है, दोनों के जन्म की सम्भावनाएँ उसमें निहित हैं। आगे चलकर जब वह विशिष्ट बोध प्राप्त करता है, चिन्तन और विचार के क्षेत्र में आता है, अपने जीवन का स्वयं निर्माण करता है और अपनी सोई हुई मनुष्यता की चेतना को जगाता है, तब उसका दूसरा जन्म होता है। यही मनुष्य का द्वितीय जन्म है। जब मनुष्यता जाग उठती है, तो उदात्त कर्तव्यों का महत्त्व सामने आ जाता है, मनुष्य ऊँची उड़ान लता है। ऐसा 'मनुष्य' जिस किसी भी परिवार, समाज या राष्ट्र में जन्म लेता है, वहीं अपने जीवन के पावन सौरभ का प्रसार करता है और जीवन की महत्त्वपूर्ण ऊँचाइयों को प्राप्त करता है। अगर तुम अपने तन के मनुष्य-जीवन में मनुष्य के निर्मल मन को जगा लोगे, अपने भीतर की पवित्र मानवीय वृत्तियों को विकसित कर लोगे और अपने जीवन के कल्याणकारी सौरभ को संसार में फैलाना शुरू कर दोगे, तब तुम्हारा दूसरा जन्म होगा। उस समय तुम मानव 'द्विज' बन सकोगे। जीवन का यही एक महान् सन्देश है। जब भगवान महावीर का पावापुरी में निर्वाण हो रहा था और हजारों-लाखों लोग उनके दर्शन के लिए चले आ रहे थे, तब उन्होंने अपने अन्तिम प्रवचन में एक बड़ा हृदयग्राही, करुणा से परिपूर्ण सन्देश दिया-"माणुस्सं खु सुदुल्लहं।"-निस्संदेह, मनुष्यजीवन बड़ा ही दुर्लभ है। इसका अभिप्राय यह है कि मनुष्य का शरीर लिए हुए तो लाखों, करोड़ों, अर्षों की संख्या सामने है, सब अपने को मनुष्य समझ रहे हैं, किन्तु केवल मनुष्य-तन पा लेना ही मनुष्य-जीवन को पा लेना नहीं है, वास्तविक मनुष्यता पा लेने पर ही कोई मनुष्य कहला सकता है। यह जीवन की कला इतनी महत्त्वपूर्ण है कि सारा-का-सारा जीवन ही उसकी प्राप्ति में लग जाता है। मानव का क्षुद्र जीवन ज्यों-ज्यों विशाल और विराट् बनता जाता है और उसमें सत्य, अहिंसा और दया का विकास होता जाता है, त्यों-त्यों अन्दर में सोया हुना मनुष्य का भाव जागृत होता जाता है। अतएव शास्त्रीय शब्दों में कहा जा सकता है कि मनुष्यत्व के भाव का जागृत होना ही सच्चा मनुष्य होना है। मनुष्य जीवन में मनुष्यत्व होने की प्रेरणा उत्पन्न करने वाली चार बातें भगवान् महावीर ने बतलाई है। उनमें सर्वप्रथम 'प्रकृतिभद्रता' है। मनुष्य को अपने-आप से प्रश्न करना चाहिए कि तू प्रकृति से भद्र है अथवा नहीं? तेरे मन में या जीवन में कोई अभद्रता की रुग्णता तो नहीं हैं ? तू अपने में सहज-भाव से परिवार को और समाज को स्थान देता है या नहीं? आस-पास के लोगों में समरसता लेकर चलता है या नहीं? ऐसा तो नहीं है कि त अकेला होता है, तो कुछ और करता है, परिवार में रहता है, तो कुछ और ही करता है और समाज में जाकर कुछ और ही करने लगता है ? इस प्रकार अपने को तूने कहीं बहुरूपिया तो नहीं बना रखा है ? स्मरण रखें, जहाँ जीवन में एकरूपता नहीं है, वहाँ जीवन का विकास नहीं है। मैं समझता हूँ, अगर आप गृहस्थ हैं, तब भी आपको इस कला की बहुत बड़ी आवश्यकता २८२ पन्ना समिक्खए धम्म www.jainelibrary.org Jain Education Interational For Private & Personal Use Only
SR No.212378
Book TitleBhagwatta Mahavir Ke Drushti Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherZ_Panna_Sammikkhaye_Dhammam_Part_01_003408_HR.pdf
Publication Year1987
Total Pages12
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size896 KB
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