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भंग बाहर में द्रव्यतः शील-भंग होने पर भी भाव न होने से शील-भंग की कोटि में नहीं आता। अतः उक्त द्रव्य भंग से किसी भी प्रकार के पाप कर्म का बन्ध नहीं होता। पूर्व में अनेक बार स्पष्ट किया जा चुका है कि भावहीनता की स्थिति में केवल जड़ शरीर की क्रिया से अच्छा या बुरा कुछ भी शुभाशुभ नहीं होता।
यदि कोई नारी या नर साव-मर्यादा न जानने के कारण भावनावश सहसा विरक्त साधु या साध्वी के चरण-स्पर्श कर लेते हैं, तो इसमें ब्रह्मचर्य की दृष्टि से न नर और नारी दूषित होते हैं और न साधु-साध्वी। क्योंकि दोनों के ही अन्तरंग में अब्रह्मचर्य का कोई भाव नहीं है।
आगमों में साधु द्वारा नदी में डूबती साध्वी को निकालने, रोग विशेष की स्थिति में परिचर्या करने का विधान है। उक्त स्थिति में साधु द्वारा साध्वी का जो संघट किया जाता है, वह भी दोष कोटि में नहीं आता है, अपितु सेवा-वृति होने से यह संवर-निर्जरा का हेतु अन्तरंग तर माना गया है। स्पष्ट है, जैन-दर्शन व्यवहार को मानता हुआ भी अन्ततः भाव पक्ष पर ही अवलम्बित है। वह भाव को ही प्रधानता देता है।
वर्तमान में जो नारी जाति पर बलात्कार की दुर्घटनाएँ होती हैं, उन्हें इसी प्रथम भंग के परिप्रेक्ष्य में देखना चाहिए। बलात्कारियों के उपद्रव से शीलवती नारी की पवित्रता नष्ट नहीं होती, अतः उसे दूषित न मानना चाहिए, व्यर्थ के अपवित्रता के नाम पर किसी प्रकार का दुर्व्यवहार नहीं करना चाहिए। ऐसा करना स्वयं एक हिंसा है, असत्य है, अतः पापाचार है।
२. मेहुणसन्ना परिणयस्स तदसंपत्तीए भावनो न दवनो।
__मन में मैथन की, विषय वासना की वृत्ति है. किन्तु बाहर में परिस्थिति विशेष से अवसर न मिलने के कारण, उसकी पूर्ति न हो पाती है, यह भाव से मैथुन है, द्रव्य से नहीं। इस द्वितीय भंग में मैथुन का भाव होने से तन्मूलक कर्म-बन्ध होता है ।
३. एवं चेव संपत्तीए दश्वो वि, भावनो वि ।
मथुन की मन में वृति भी हैं, और बाहर में तदनुरूप पूर्ति भी कर ली जाती है, तो यह द्रव्य और भाव दोनों से मैथुन-सेवन है। यह तृतीय भंग भी भावमूलक होने से कर्मबन्ध का हेतु है।
४. वरिम-भंगो पुण सुनो।
चतुर्थ भंग है-'न द्रव्य से मैथुन है और न भाव से।' यह भंग केवल शाब्दिक विकल्प मात्र है, अतः पूर्वोक्त चतुर्थ भंग के समान अर्थ से शून्य है, जीवन में उभयाभावापेक्षी चतुर्थ भंग की कोई स्थिति ही नहीं होती।
परिग्रह-अपरिग्रह सम्बन्धी चतुर्भगी :
१. अरत्त-दुट्ठस्स धम्मोवगरणं दव्वनो परिग्गहो, नो भावनो।
वीतराग-चर्या में अतुरत साधु एवं साध्वी के धर्मोपकरण द्रव्य से परिग्रह है, भाव से नहीं। क्योंकि धर्मचर्या में उपकारी अर्थात् साधक होने से अमुक उपकरण विशेष धर्मोपकरण कहलाते हैं। मुनि अपने विहित धर्मोपकरणों का उपयोग, जीवदया आदि के हेतु
महावतों का भंग-दर्शन
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