________________ तरह अचल-अकम्प बनकर सहना होगा-"मेरुश्य वारण प्रकंपमाणो।" प्रलय काल के थपेड़ों में भी मेरु की तरह अकम्प, अडोल, अविचल रहना होगा! और, जब कषायों का दावानल उठेगा, साधक को उसे वैराग्य का पर्जन्य बनकर शान्त करना होगा! कष्टों, राष्ट्रकवि मैथलीगरण गुप्त ने एक जगह कहा है "मनुज दुग्ध से, दनुज रक्त से, देव सुधा से जीते हैं। किन्तु हलाहल भवसागर का, शिवशंकर ही पीते हैं।" तो, इस भवसागर का हलाहल पान करके ही उसे मृत्युञ्जय बनना होगा। तभी वह अपने कल्याण मार्ग की अन्तिम मंजिल को पा सकेगा, जहाँ पहँचने के बाद प्रात्मा अमर शान्ति, सत्-चित्-ग्रानन्द और अनन्त ज्योतिरूप बन जाती है। भाव से पान करके, उनको समभाव से आत्मसात् करके ही साधना को प्रशस्त किया जा सकता है। गंगा, धरती के गंदे नालों को अपने रूप में प्रात्मसात् कारके जितनी समतल भूमि पर यशस्वी हो सकी है, उतनी गंगोत्तरी--उद्गम-स्थल में नहीं। दुर्भावों का, विकारों का अन्त करके ही विश्व का कल्याण संभव है। आत्मा को शुभ से शुद्ध की ओर ले जाना, इसी का पर्याय-विशेष है। कल्याण का ज्योतिर्मय पथ 167 Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org