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________________ पदार्थों के साथ मेरापन का सम्बन्ध जोड़ रहा है। किन्तु, वास्तव में ये प्रात्मा के कभी नहीं होते । शरीर तथा इन्द्रिय ग्रादि पर-पदार्थ प्रात्मा का न कभी अहित कर सकते हैं और न कभी हित । यदि कोई व्यक्ति यह कहे कि मेरी रूप-दर्शक ये आँखें मुझे पतित कर रही हैं, तो यह बात ठीक नहीं है। आँखों में मानव का उत्थान और पतन करने की क्षमता है ही नहीं, यह क्षमता तो मानव की अपनी आत्मा में ही है। आँखें तो सिर्फ निमित्त बन सकती हैं, इससे अधिक और कुछ नहीं। प्राचारांग सूत्र में भगवान महावीर ने कहा है कि अाँखें जब है, तो वे रूप को ग्रहण करेंगी ही। अच्छा या बुरा, जो भी दृश्य उनके सम्मुख आएगा, उसका रूप आँखें ग्रहण कर लेंगी। साधक बनने के लिए सूरदास बनना जरूरी नहीं है। किन्तु, आवश्यकता इस बात की है कि आँखों के सामने अच्छा या बुरा जो भी रूप पाए, उसे वे ग्रहण तो भले ही करें, किन्तु उसके सम्बन्ध में राग-द्वेष का भावनाए, मन में किसी प्रकार का विकल्प न हो, तो आँखों से कुछ भी देखने में कोई हानि नहीं है। इसी प्रकार कान है, तो जो भी स्वर या शब्द उसकी सीमा के अन्दर में होगा, उसे वह ग्रहण करेगा ही, सुनेगा ही। निन्दा और स्तुति, जय-जयकार और भर्त्सना--दोनों ही ध्वनियाँ कान में अवश्य आएँगी, विन्तु उनके प्रति राग-द्वेष का विकल्प न उठना चाहिए। यही बात गंधादि ग्राहक घ्राण, जिह्वा, कर्ग, स्पर्शन इन्द्रियों के सम्बन्ध में है। यदि वास्तव में साधक अपने को तटस्थ वीतराग बना लेता है, तो संसार के कोई भी पदार्थ उसे बन्धन में नहीं डाल सकते । बन्धन तो निज के विकल्पों के कारण होता है। यदि अन्दर के भावों में राग-द्वेष की चिकनाई नहीं रहती है, तो बाह्य पदार्थों के रजकग उस पर चिपक नहीं सकते, फलतः उस आत्मा को मलिन ही नहीं कर सकते । इस प्रकार जैन-दर्शन का यह निश्चित मत है कि बन्धन का कारण एकमात्र भाव ही है, अन्य द्रव्य, वस्तु एवं पदार्थ नहीं । मुक्ति का दाता कौन? ऊपर के विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि जब बन्धन का कारण भाव है, तो मुक्ति का कारण भी कोई दूसरा नहीं हो सकता। जब बेचारे शरीर और इन्द्रियाँ बन्धन में नहीं डाल सकते, तो मुक्ति कैसे दिला सकते हैं ? शरीर में यह शक्ति है ही नहीं, भले ही वह तीर्थकर का वज्रऋषभनाराच संहनन वाला शरीर ही क्यों न हो। समस्त विश्व में ऐसी कोई भी बाहरी शक्ति नहीं है, जो किसी आत्मा को बन्धन में डाल दे या उसे मुक्ति दिला दे। जैन एवं वेदान्त जैसे महान्-भारतीय दर्शन एक स्वर से यही कहते हैं- हे आत्मन् ! तेरी मुक्ति तेरे ही हाथ में है, तू ही बन्धन करने वाला है और तू ही अपने को मुक्त करने वाला भी है। "स्वयं कर्म करोत्यात्मा, स्वयं तत्फलमश्नुते । स्वयं भ्रमति संसारे, स्वयं तस्माद् विमुच्यते ॥" यह आत्मा स्वयं ही कर्म करती है और स्वयं ही उसे भोगती है। अपने स्वयं के कर्मों के कारण ही संसार में भ्रमण करती है और स्वयं ही कर्मों से मुक्त होकर सदा के लिए मोक्ष रूप में विराजमान हो जाती है। इसलिए हमें मुक्ति के लिए कहीं बाहर भटकने की जरूरत नहीं है, वह इसी प्रात्मा में है, आत्मा ही मुक्ति का दाता है। प्रात्मा ही मित्र है : जब-जब आत्मा बाहर झाँकती है और जब-जब सुख, दुःख, शत्रु और मित्र को बाहर में देखने का विकल्प करती है, तभी आत्मा उन विकल्पों में उलझकर अपने आपको बन्धनों में फंसा लेती है। वास्तव में जब तक आत्मा का दृष्टिकोण बहिर्मखी रहता है, तब तक उसके लिए बन्धन ही बन्धन है। जब वह बाहर में किसी मित्र को खोजेगी, तो एक मित्र बंध-पमोक्खो तुम प्रज्मत्थेव Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.212353
Book TitleBandh Pamokkho Tuzjna Ajjhatthev
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherZ_Panna_Sammikkhaye_Dhammam_Part_01_003408_HR.pdf
Publication Year1987
Total Pages19
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size2 MB
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