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________________ "तू शुद्ध है, 'निरंजन है और निर्विकार है। इस संसार में तू संसार की माया में आबद्ध होने के लिए नहीं पाया है । तेरे जीवन का एकमात्र लक्ष्य है-भव-बन्धनों का विच्छेद करना, माया के जाल को काट देना और सर्व प्रकार के प्रपंचों एवं समग्र द्वन्द्वों से विमुक्त होकर रहना। जिस भारत की ललनाएँ अपने दुधमुहे शिशुओं को पालने में झुलाते हुए लोरियों में भी अध्यात्मवाद के संगीत सुनाती हैं, उस भारत के समक्ष मोक्ष एवं मुक्ति से ऊँचा अन्य कोई लक्ष्य हो ही नहीं सकता। ___अब प्रश्न यह उठता है कि जिस मुक्ति की चर्चा भारत का अध्यात्मवादी-दर्शन जन्मघुट्टी से लेकर मृत्यु-पर्यन्त करता रहता है, जीवन के किसी भी क्षण में वह उसे विस्मृत नहीं कर सकता, आखिर उस मुक्ति का उपाय और साधन क्या है ? क्योंकि साधक बिना साधन के सिद्धि को प्राप्त कैसे कर सकता है ? कल्पना कीजिए, आपके समक्ष एक वह साधक है, जिसने मुक्ति की सत्ता और स्थिति पर विश्वास कर लिया है, जिसने मुक्ति प्राप्ति का अपना लक्ष्य भी स्थिर कर लिया है। यह सब कुछ तो ठीक है परन्तु यदि उसे यह मालूम न हो कि मुक्ति का साधन और उपाय क्या है, तब उसके सामने एक बड़ी विकट समस्या आ जाती है। साधक के जीवन में इस प्रकार की स्थिति बड़ी विचित्र और बड़ी विकट होती है। यदि कोई अकुशल नाविक नाव में बैठकर किसी विशाल नदी को पार कर रहा हो, और ऐसे ही चलते-चलते मझधार में पहुँच भी चुका हो, पर इस प्रकार की स्थिति में यदि सहसा झंझावात आजाए, तूफान आ जाए, तब वह अपने को कैसे बचा सकेगा, यदि उसने बचने का उपाय पहले से नहीं सीखा है, तो नौका एक माध्यम है जल-धारा को पार करने के लिए। परन्तु नौका चलाने की कला यदि ठीक तरह नहीं सीखी है, तो कैसे पार हो सकता है ? यही स्थिति संसार-सागर को पार करते हुए अध्यात्म-साधक की होती है। मुक्ति के लक्ष्य को स्थिर कर लेना ही पर्याप्त नहीं है, उससे भी बढ़ कर आवश्यक यह है, एक साधक उसे कैसे प्राप्त कर सके ? भारत के अध्यात्मवादी-दर्शन में मात्र मुक्ति के लक्ष्य को सूचित ही नहीं किया गया, बल्कि उस लक्ष्य तक पहुँचने और उसे प्राप्त करने का मार्ग और उपाय भी बताया गया है। मुक्ति के आदर्श को बताकर साधक से यह कभी नहीं कहा गया कि वह केवल तुम्हारे जीवन का आदर्श है, किन्तु तुम उसे कभी प्राप्त नहीं कर सकते । क्योंकि उसकी प्राप्ति का कोई अमोघ साधन नहीं है। इसके विपरीत उसे सतत एक ही प्रेरणा दी गई कि मुक्ति का प्रादर्श 'ने में बहत ऊँचा है, किन्तु वह अलभ्य नहीं है। तुम उसे अपनी साधना के द्वारा एक दिन अवश्य प्राप्त कर सकते हो। जिस साध्य की सिद्धि का साधन न हो, वह साध्य ही कैसा? आश्चर्य है, कुछ लोग आदर्श की बड़ी विचित्र व्याख्या करते है। उनके जीवन के शब्द-कोष में आदर्श का अर्थ है-'मानव-जीवन की वह उच्चता एवं पवित्रता, जिसकी कल्पना तो की जा सके, किंतु जहाँ पहुँचा न जा सके।' मेरे विचार में आदर्श की यह व्याख्या सर्वथा भ्रान्त है, बिल्कुल गलत है। भारत की अध्यात्म-संस्कृति कभी यह स्वीकार नहीं करती कि 'आदर्श, आदर्श है, वह कभी यथार्थ की भूमिका पर नहीं उतर सकता। हम आदर्श पर न कभी पहुंचे हैं और न कभी पहुंच सकेंगे।' अध्यात्मवादी-दर्शन यह कैसे स्वीकार कर सकता है कि जीवन की उच्चता और पवित्रता का हम चिन्तन तो करें, किन्तु जीवन में उसका अनुभव न कर सकें। मैं उस साधना को साधना मानने के लिए तैयार नहीं हूँ, जिसका चिन्तन तो आकर्षक एवं उत्कृष्ट हो, किन्तु वह चिन्तन साक्षात्कार एवं अनुभव का रूप न ले सके । मात्र कल्पना एवं स्वप्नलोक के आदर्श में भारत के अध्यात्मवादी-दर्शन की आस्था नहीं है, होनी भी नहीं चाहिए। यहाँ तो चिन्तन को अनुभव बनना पड़ता है और अनुभव को चिन्तन बनना पड़ता है। चिन्तन और अनुभव यहाँ सहजन्मा और सदा से सहगामी रहे हैं। उन्हें एक-दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। मानव-जीवन का आदर्श स्वप्नलोक की वस्तु नहीं है कि ज्यों-ज्यों उसकी ओर आगे बढ़ते जाएँ, त्यों-त्यों वह दूर से दूरतर होती जाए। आदर्श उस अनन्त क्षितिज के समान नहीं है, जो दृष्टिगोचर तो होता रहे, किन्तु कभी प्राप्त न हो। धरती और आकाश के मिलन का प्रतीक बंध-पमोक्खो तुम अज्झत्थेव ७३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.212353
Book TitleBandh Pamokkho Tuzjna Ajjhatthev
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherZ_Panna_Sammikkhaye_Dhammam_Part_01_003408_HR.pdf
Publication Year1987
Total Pages19
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size2 MB
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