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________________ एक-न-एक दिन अवश्य ही सुख पाएगा, इसमें किसी प्रकार का सन्देह नहीं है। सुख की अभिलाषा प्रत्येक में होने पर भी वह सूख कहाँ मिलेगा, इस तथ्य को बिरले ही समझ पाते हैं। निश्चय ही उक्त अनन्त एवं अक्षय सुख का केन्द्र हमारी स्वयं की आत्मा है। प्रात्मा के अतिरिक्त विश्व के किसी भी बाह्य पदार्थ में सुख की परिकल्पना करना, एक भयंकर भ्रम है। जिस आत्मा ने अपने अन्दर में--अपने स्वरूप में ही रहकर अक्षय प्रानन्द का अनुसंधान कर लिया, उसे अधिगत कर लिया, दर्शन की भाषा में, वह आत्मा सच्चिदानन्द बन जाता है। सत् और चित् तो उसके पास व्यक्त स्वरूप में पहले भी थे, किन्तु आनन्द के व्यक्त-स्वरूप की कमी थी। उसकी पूर्ति होते ही, आनन्द की उपलब्धि होते ही वह सच्चिदानन्द बन गया। जीव से ईश्वर बन गया, आत्मा से परमात्मा बन गया, भक्त से भगवान बन गया और उपासक से उपास्य बन गया। यहीं भारतीय-दर्शन का में है। इसी मर्म को प्राप्त करने के लिए साधक निरन्तर अध्यात्म-साधना का दीप जलाता है। ईश्वर कौन है, कहाँ है? ईश्वरत्व के सम्बन्ध में ऊपरि विचार-चर्चा के उपरान्त अब हमें निष्कर्ष रूप में यह विचार करना है कि ईश्वर क्या है ? उसकी वास्तविक स्थिति क्या है ? मानव-जाति ईश्वर के विषय में काफी भ्रान्त रही है। सम्भव' है, अन्य किसी विषय में उतनी भ्रान्त न रही हो, जितनी कि ईश्वर के विषय में रही है। कुछ धर्मों ने ईश्वर को एक सर्वोपरि प्रभुसत्ता के रूप में माना है। वे कहते हैं-"ईश्वर एक है, अनादिकाल से वह सर्वसत्ता सम्पन्न एक ही चला आ रहा है। दूसरा कोई ईश्वर नहीं है। नहीं क्या? दूसरा कोई ईश्वर हो ही नहीं सकता। वह ईश्वर अपनी इच्छा का राजा है। जो चाहता है, वहीं करता है। वह असंभव को सम्भव कर सकता है, और संभव को असंभव ! जो हो सकता है, उसे न होने दे, जो नहीं हो सकता, उसे करके दिखा दे। जो किसी अन्य रूप में होने जैसा हो, उसे सर्वथा विपरीत किसी अन्य रूप में कर दे।" ऐसा है ईश्वर का तानाशाही व्यक्तित्व, जिसे एक भक्त ने 'कर्तुमकर्तुमन्यथा कर्तुं समर्थः' कहा है। वह जगत् का निर्माता है. संहर्ता है। एक क्षण में वह विराट् विश्व को बना सकता है, और एक क्षण में उसे नष्ट भी कर सकता है। उसकी लीला का कुछ पार नहीं है। उसकी मर्जी के बिना एक पत्ता भी नहीं हिल सकता। और वह रहता कहाँ है ? किसी का ईश्वर वैकुण्ठ में रहता है, किसी का ब्रह्मलोक में, तो किसी का सातवें आसमान पर रहता है, तो किसी का समग्र विश्व में व्याप्त है। ईश्वरीय-सत्ता की उक्त स्थापना ने मनुष्य को पंग बना दिया है। उसने पराश्रित रहने की दुर्बल मनोवृत्ति पैदा की है। देववाद के समान ही ईश्वरवाद भी मानव को भय एवं प्रलोभन के द्वार पर लाकर खड़ा कर देता है। वह ईश्वर से डरता है, फलतः उसके प्रकोप से बचने के लिए वह नाना प्रकार के विचित्र क्रिया-काण्ड करता है, स्तोत्र पढ़ता है, माला जपता है, यज्ञ करता है, मूक-पशु की बलि तक देता है। वह समझता है कि इस प्रकार करन से ईश्वर मुझ पर प्रसन्न रहेगा, मेरे सब अपराध क्षमा कर देगा, और मझे किसी प्रकार का दण्ड न देगा। इस तरह ईश्वरीय उपासना मनुष्य को पापाचार से नहीं बचाती, अपितु पापाचार के फल से बच निकलने की दुषित मनोवत्ति को बढ़ावा देती है। मनुष्य को कर्तव्यनिष्ठ नहीं, अपितु खुशामदी बनाती है। यही बात प्रलोभन के सम्बन्ध में है। मनुष्य को अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए न्यायोचित प्रयत्न करना चाहिए। जो पाना है, उसके लिए अपने पुरुषार्थ का भरोसा रखना चाहिए। परन्तु ईश्वरवाद मनु य को इसके विपरीत आलसी, निष्कर्मण्य एवं भिखारी बनाता है। वह हर आवश्यकता के लिए ईश्वर से भीख मांगने लगता है। वह समझता है, यदि ईश्वर प्रसन्न हो जाए, तो बस कुछ का कुछ हो सकता है। ईश्वर के बिना मेरी भाग्यलिपि को कौन पलट सकता है ? कोई नहीं। और, उक्त प्रलोभन से प्रभावित मनोवृत्ति ___ पन्ना समित्रए धम्म Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.212351
Book TitleTattvamasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherZ_Panna_Sammikkhaye_Dhammam_Part_01_003408_HR.pdf
Publication Year1987
Total Pages6
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size666 KB
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