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वाले पापाचारों से बचाता है । संसार को भौतिक सुखों की लालसा से हटाकर प्राध्यात्मिक सुखों का प्रेमी बनाता है । और, बनाता है नरक स्वरूप उन्मत्त एवं विक्षिप्त संसार को 'सत्यं शिवं सुन्दरम्' का स्वर्ग !
तीर्थंकर की विशेष व्याख्या अपेक्षित है। तीर्थंकर का मूल अर्थ है-- तीर्थ का निर्माता । जिसके द्वारा संसाररूप मोहमाया का महानद सुविधा के साथ तिरा जाए, वह धर्म, तीर्थ कहलाता है । संस्कृत भाषा में घाट के लिए भी 'तीर्थ' शब्द प्रयुक्त होता है । अतः ये घाट के बनानेवाले तैराक, लोक में तीर्थंकर कहलाते हैं। हमारे तीर्थंकर भगवान् भी इसी प्रकार घाट के निर्माता थे, अतः तीर्थंकर कहलाते थे । आप जानते हैं, यह संसाररूपी नदी कितनी भयंकर है ! क्रोध, मान, माया, लोभ आदि के हजारों विकाररूप मगरमच्छ, भँवर र गर्त हैं इसमें, जिन्हें पार करना सहज नहीं है । साधारण साधक इन विकारों के भँवर में फँस जाते हैं, और डूब जाते हैं। परन्तु तीर्थंकर देवों ने सर्व-साधारण साधकों की सुविधा के लिए धर्म का घाट बना दिया है, सदाचाररूपी विधि-विधानों की एक निश्चित योजना तैयार कर दी है, जिससे कोई भी साधक सुविधा के साथ इस भीषण नदी को पार कर सकता है ।
तीर्थ का अर्थ पुल भी है। बिना पुल के नदी से पार होना बड़े-से-बड़े बलवान् के लिए भी अशक्य है; परन्तु पुल बन जाने पर साधारण, दुर्बल एवं रोगी यात्री भी बड़े प्रानन्द से पार हो सकता है । और तो क्या, नन्हीं सी चींटी भी इधर से उधर पार हो सकती है । हमारे तीर्थंकर वस्तुतः संसार की नदी को पार करने के लिए धर्म का तीर्थ बना गए हैं. पुल बना गए हैं, साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका - रूप चतुविध संघ की धर्म-साधना, संसार सागर से पार होने के लिए पुल है । अपने सामर्थ्य के अनुसार इनमें से किसी भी पुल पर चढ़िए, किसी भी धर्म-साधना को अपनाइए ग्राप उस पार हो जाएँगे ।
आप प्रश्न कर सकते हैं कि इस प्रकार धर्म तीर्थ की स्थापना करनेवाले तो भारतaf में सर्वप्रथम श्री ऋषभदेव भगवान् हुए थे; अतः वे ही तीर्थंकर कहलाने चाहिए। दूसरे तीर्थंकरों को तीर्थंकर क्यों कहा जाता है ? उत्तर में निवेदन है कि प्रत्येक तीर्थंकर अपने युग में प्रचलित धर्म-परम्परा में समयानुसार परिवर्तन करता है, अतः नये तीर्थ का निर्माण करता है। पुराने घाट जब खराब हो जाते हैं, तब नया घाट बनाया जाता है न ? इसी प्रकार पुराने धार्मिक विधानों में विकृति ग्रा जाने के बाद नये तीर्थङ्कर, संसार के समक्ष नये धार्मिक विधानों की योजना उपस्थित करते हैं । धर्म का मूल प्राण वही होता है, केवल क्रियाकाण्ड-रूप शरीर बदल देते हैं । जैन समाज प्रारम्भ से, केवल धर्म की मूल भावनाओं पर विश्वास करता आया है, न कि पुराने शब्दों और पुरानी पद्धतियों पर । जैन तीर्थंकरों का शासन-भेद, उदाहरण के लिए, भगवान् पार्श्वनाथ और भगवान् महावीर का शासनभेद, मेरी उपर्युक्त मान्यता के लिए ज्वलन्त प्रमाण है ।
प्रष्टादश दोष :
जैन-धर्म में मानव-जीवन की दुर्बलता के प्रर्थात् मनुष्य की अपूर्णता के सूचक निम्नोक्त अठारह दोष माने गए हैं-
१. मिथ्यात्व = असत्य विश्वास, विपरीत दृष्टि ।
अज्ञान:- मिथ्यात्वग्रस्त कुज्ञान ।
२.
३. क्रोध ।
४.
मान ।
५. माया कपट 1
६. लोभ ।
७.
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रति मन पसन्द मनोज्ञ वस्तु के मिलने पर हर्ष । अरति मनोज्ञ वस्तु के मिलने पर क्षोभ ।
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पन्ना समिक्ख धम्मं
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