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________________ जन्मान्तर के अन्धे थे, परन्तु भगवान् के पास आते ही अज्ञान का अन्धकार दूर हो गया, सत्य का प्रकाश जगमगा गया। ज्ञान-नेत्र की ज्योति पाते ही सब भ्रान्तियाँ क्षण-भर में दूर हो गई। धर्मचक्रवर्ती : तीर्थकर भगवान् धर्म के श्रेष्ठ चक्रवर्ती है, चार दिशारूप चार गतियों का अन्त करने वाले हैं। जब देश में सब और अराजकता छा जाती है, तथा छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त होकर देश की एकता नष्ट हो जाती है, तब चक्रवर्ती का चक्र ही पुनः अखण्ड-एकछत्र राज्य की सव्यवस्था करता है, यह सम्पूर्ण बिखरी हई देश की शक्ति को एक शासन के नीचे लाता है। सार्वभौम राज्य के बिना प्रजा में शान्ति की व्यवस्था नहीं हो सकती। अतः चक्रवर्ती इसी उद्देश्य की पूर्ति करता है। वह पूर्व, पश्चिम और दक्षिण इन तीन दिशाओं में समुद्रपर्यन्त तथा उत्तर में हिमवान् पर्वत पर्यन्त अपना अखण्ड साम्राज्य स्थापित करता है। अतः वह चतुरन्त चक्रवर्ती कहलाता है। तीर्थंकर भगवान् भी नरक, तिर्यंच, मनुष्य, देवरूप चारों गतियों के विकारों का अन्त कर सम्पूर्ण विश्व में अपना अहिंसा और सत्य का धर्म-राज्य स्थापित करते हैं। दान, शील, तप और भावरूप चतुर्विध धर्म की साधना वे स्वयं अन्तिम कोटि तक करते हैं, और जनता को भी इस पवित्न धर्म का उपदेश देते हैं, अतः वे धर्म के चतुरन्त चक्रवर्ती कहलाते हैं। भगवान् का धर्म-चक्र ही वस्तुतः संसार में भौतिक एवं आध्यात्मिक-सर्व-प्रकारेण अखण्डशान्ति कायम कर सकता है। अपने-अपने मत-जन्य दुराग्रह के कारण फैली हुई धार्मिक अराजकता का अन्त कर अखण्ड धर्म-राज्य की स्थापना तीर्थंकर ही करते हैं। वस्तुतः यदि विचार किया जाए, तो भौतिक जगत् के प्रतिनिधि चक्रवर्ती से यह संसार कभी स्थायी शान्ति पा ही नहीं सकता। चक्रवर्ती तो भोग-वासना का दास एक पामर संसारी प्राणी है। उसके चक्र के मूल में साम्राज्य-लिप्सा का विष छुपा रहता है। जनता का परमार्थ नहीं, अपना स्वार्थ निहित रहता है। यही कारण है कि जहाँ चक्रवर्ती का शासन मानव-प्रजा के निरपराध रक्त से सींचा जाता है, वहाँ हदय पर नहीं, शरीर पर विजय पाने का प्रयत्न होता है। परन्तु तीर्थकर धर्म-चक्रवर्ती हैं। अतः वे पहले अपनी ही तपःसाधना के बल से काम, क्रोधादि अन्तरंग शत्रुओं को नष्ट करते हैं, पश्चात् जनता के लिए धर्म-तीर्थ की स्थापना कर प्रखण्ड आध्यात्मिक शान्ति का साम्राज्य कायम करते हैं। तीर्थंकर शरीर के नहीं, हृदय के सम्राट बनते हैं। फलतः वे संसार में पारस्परिक प्रेम एवं सहानुभूति का, त्याग एवं वैराग्य का विश्वहितंकर शासन चलाते हैं। वास्तविक सुख-शान्ति, इन्हीं धर्म-चक्रवर्तियों के शासन की छत्रछाया में प्राप्त हो सकती है, अन्यत्र नहीं। तीर्थंकर भगवान् का शासन तो चक्रवर्तियों पर भी होता है। भोग-विलास के कारण जीवन की भूल-भुलैय्या में पड़ जाने वाले और अपने कर्तव्य से पराङमख हो जाने वाले चक्रवतियों को तीर्थकर ही उपदेश देकर सन्मार्ग पर लाते हैं, कर्तव्य का भान कराते हैं। अतः तीर्थकर भगवान् चक्रवर्तियों के भी चक्रवर्ती हैं। व्यावृत्त छन : तीर्थंकर देव व्यावृत्त-छद्म कहलाते हैं। व्यावृत्त-छद्म का अर्थ है--'छद्म से रहित ।' छद्म के दो अर्थ हैं--प्रावरण और छल । ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय, उक्त चार घातिया कर्म आत्मा की ज्ञान, दर्शन आदि मूल शक्तियों को छादन किए रहते हैं, ढंके रहते हैं, अतः वे छद्म कहलाते हैं 'छादयतीति छद्म ज्ञानावरणीयादि -प्रतिक्रमण सूत्र पद विवृत्ति, प्रणिपात-दण्डक और, जो इस छद्म से, ज्ञानावरणीय आदि चार धातिया कर्मों से पूर्णतया अलग हो गये हैं, वे 'व्यावृत्त-छद्म' कहलाते हैं। तीर्थंकर देव अज्ञान और मोह आदि से सर्वथा रहित पन्ना समिक्खए धम्म Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.212349
Book TitleTirthankar Mukti Path Ka Prastota
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherZ_Panna_Sammikkhaye_Dhammam_Part_01_003408_HR.pdf
Publication Year1987
Total Pages16
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size1 MB
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