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अन्तरात्मा की शुद्धता की ओर दृष्टि गई, तो प्रत्येक प्राणी में एक ही विराट् शुद्धता उन्हें तुरन्त दिखलाई पड़ी और तत्काल ही अपने प्रश्न का उत्तर उन्होंने स्वयं दे दिया---
""सिया-राममय सब जग जानी। .
करहुं प्रणाम जोरि जुग-पानी ॥" इस चौपाई में एक विराट् सत्य का उद्घाटन उन्होंने कर दिया है। उन्होंने सर्वत्र और सभी प्रात्माओं में सीता-राम का दर्शन किया। राम और सीता की पवित्र आत्मा से भिन्न उन्हें कोई भी दुष्ट आत्मा दिखलाई नहीं पड़ी, कहीं भी उन्होंने रावण या कुंभकरण का दर्शन नहीं किया। उन्हें हर आत्मा, राम और सीता के उज्ज्वल रूप में जगमगाती परिलक्षित हुई।
जैनों के द्वारा जब नमस्कार करने का प्रश्न उठा, तो विचार किया गया। किसी एक ही विशिष्ट तीर्थकर, परमात्मा या भगवान् पर जा कर बुद्धि नहीं रुकी। उन्होंने कहाणमो अरहताण'----इसी एक पद में सभी भूत, भविष्य एवं वर्तमान अरहंतों को नमस्कार हो गया। नहीं तो, कितने अरहंतों के अलग-अलग नाम गिनाते या किसको नमस्कार करते, किसको छोड़ते? किसका नाम पहले लेते और किसका पीछे? इस प्रकार अनेक विवादास्पद प्रश्न उपस्थित हो जाते, जिनमें नमस्कार का भाव ही तिरोहित हो जाता। इसी प्रकार इसके प्रागे-- णमो सिद्धाणं' भूत, वर्तमान और भविष्यत् के सभी सिद्धों को, ‘णमो पायरियाणं' में सभी प्राचार्यों को, 'जसो उवज्झायाण' में सभी उपाध्यायों को और णमो लोए सव्व साहणं में लोक में स्थित समस्त साधुओं को नमस्कार कर लिया गया। इसमें यह भेद नहीं किया गया, कि जैन-धर्म या किसी विशेष सम्प्रदायों के ही प्राचार्यो, उपाध्यायों और साधुओं को नमस्कार हो, बल्कि इस नमस्कार में सभी सम्प्रदायों और पंथों के आत्म-निष्ठ, शुद्ध, सदाचारी प्राचार्य, उपाध्याय और साधु सम्मिलित हो गए। कुछ लोग, इसे जैन अरहंती, सिद्धों, प्राचार्यो, उपाध्यायों और साधुनों तक ही सीमित कर लेते हैं, किन्तु यह तो विचारों को सही एवं सम्यक् मा में नहीं समझने के कारण है। वास्तव में जैनत्व, तो अन्दर की ज्योति है, जो किसी बाड़े, वेष, पंथ, ग्रन्थ या सम्प्रदाय में बन्द नहीं है । जो धर्म किसी बाड़े, वेष, पंथमान्यता और क्रिया-काण्डो में बन्द हो जाता है, वह धर्म जड़ और निस्तेज हो जाता है। धर्म का प्रकाश प्रात्मा में होता है, वेष में नहीं । वेष की भूल-भुलैय्या में हम धर्म के शुद्ध स्वरूप को यदि नहीं पहचान पाते, तो यह ठीक नहीं है।
मामा: ज्ञान-स्वरूप है:
भारतीय-दर्शन में एक मात्र चार्वाक को छोड़ कर, शेष समस्त दर्शन प्रात्मा की सत्ता को स्वीकार करते हैं और आत्मा के अस्तित्व में विश्वास करते हैं। यद्यपि प्रात्मा के स्वरूप के प्रतिपादन की पद्धति सबकी भिन्न-भिन्न है, पर इसमें जरा भी शंका नहीं है, कि वे सब समवेत स्वर में आत्मा की सत्ता को स्वीकार करते हैं। भारतीय-दर्शनों में प्रात्मा के स्वरूप के प्रतिपादन में सब से अधिक विवादास्पद प्रश्न यह है, कि ज्ञान प्रात्मा का निज गुण है या आगन्तुक गुण है। न्याय और वैशेषिक-दर्शन ज्ञान को प्रात्मा का असाधारण गुण तो स्वीकार करते हैं, पर उनके वहाँ वह आत्मा का स्वाभाविक गुण नहो कर, आगन्तुक गुण है। वैशेषिकदर्शन के अनुसार तो, जब तक आत्मा की संसारी अवस्था है, तब तक ज्ञान आत्मा में रहता है, परन्तु मुक्त अवस्था में ज्ञान नष्ट हो जाता है। इसके अतिरिक्त, कुछ दर्शनों की यह भी मान्यता है कि संसारी आत्मा का ज्ञान अनित्य है, पर ईश्वर का ज्ञान नित्य है। इसके विपरीत सांख्य और वेदान्त-दर्शन ज्ञान-चेतना को आत्मा का निज स्वरूप स्वीकार करते हैं। वेदान्त-दर्शन में इस दृष्टि से ज्ञान को ही प्रात्मा कहा गया है। एक शिष्य अपने गुरु से पूछता है--
"गुरुदेव ! किमात्मिका भगवतो व्यक्ति : ?"
चेतना का विराट रूप
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