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________________ ओणइ देवः - मः २७० जैनेविद्या एवं प्राकृत : अन्तरशास्त्रीय अध्ययन (१०) अव को ओ श्रोणी (अथ० १-२-३) श्रवण, नवमल्लिका णोमालिया लोण२४ लवण लोण ओनति२५ अवनयति (११) विसर्ग का ओ प्राकृत में विसर्ग का प्रयोग नहीं होता है। प्रायः इसके स्थान पर ए अथवा ओ प्रयुक्त होता है। वैदिक भाषा में यद्यपि विसर्ग का प्रयोग होता है, किन्तु उनके विकल्प रूपों में ए और ओ वाले प्रयोग भी पाये जाते हैं । यथादेवा (ऋ १-१-५) देवो वायो (अथ-१-२२-१) वायः सो ( ऋ१-१९१-११) (१२) विसर्ग का लोप देव (ऋ. १-१३-११) देवः वाय (ऋ १-२-२) वायः स (ऋ १-१-२ (अ २-१-३) (१३) ए का प्रयोग ये (ऋ १-१९-३७) (१४) व्यञ्जनपरिवर्तन प्राकृत शब्दों में व्यञ्जन परिवर्तन की प्रवृत्ति कई प्रकार से देखी जाती है । कई जगह आदि व्यञ्जन का लोप, कई जगह मध्य-व्यञ्जन लोप और कई स्थानों पर अन्त्य व्यञ्जनों का । वैदिक भाषा में ये सभी प्रकार के व्यञ्जन परिवर्तन पाये जाते हैं। कुछेक उदाहरण द्रष्टव्य हैं :(१५) क को ग गुल्फ (अथ० १-२०-२) कुलफ, एक एगो कार्त, काकः (१६) ख को ह मह (ऋ १-२२-११) मखः, मुख सः गार्त२५ कागो परिसंवाद-४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.212341
Book TitleVaidik Bhasha Me Prakrit Ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsuman Jain, Udaychandra Jain
PublisherZ_Jain_Vidya_evam_Prakrit_014026_HR.pdf
Publication Year
Total Pages21
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size1 MB
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