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जैन विद्या एवं प्राकृत : अन्तरशास्त्रीय अध्ययन
वैदिक
पायर्ड
हरी
दुर्लभ
पूसो
दुअल्लं
महि
यथा :(१) ह्रस्व का दीर्घ
संस्कृत
प्राकृत पिना' 3 (ऋ, १,१५,५)
अश्व
आसो अथा (ऋ, १,७६,३)
वर्षः
वासो मेना' (अथर्व-१,९,३) प्रकट हरी (अथर्व १,६,२)
हरि दूलह (अथ ४,९,८)
दूलह पूरुष१५ (यजु-१२-७८-१) पुरुष, पुष्य वायू (ऋ १-२-४)
वायु
वायू दूनाश (ऋ४-९-८)
दुर्नाश, दुकूल दीर्घ का ह्रस्व अमत्र (ऋ२-३६-४)
अमात्र
अमत्त महि (ऋ १-११९-४)
मही रोदसिप्रा (ऋ १०-८८-१०) रौदसीप्रा-गभीरम् गहिरं
प्राकृत में एक विशेष प्रवृत्ति है कि शब्दों के स्वर दूसरे स्वरों में बदल जाते हैं । जैसे-अ का इ, उ आदि । यही प्रवृत्ति वैदिक भाषा में मिलती है। (३) स्वरागम महित्व (अथर्व ४-२-४) महत्व, उत्तम
उत्तिमो अङ्गिर (यजु १२-८-१) अंकार, मध्यमः मज्झिमो तनुवम् (त, सं ७-२२-१) तन्वम्
तणुवं सुवर्ग (तै० ४-२-३)
सवर्गः
सुवग्गो त्रियम्बकम् (वै० प्र०६-४-८६) त्र्यम्बकम्, व्यजन विअणं सुधियो६
सुध्यो, कूपास कुप्पिसो, कुप्पासो रात्रिया'७
राज्या, द्रव्य
दविय (४) स्वरलोप
पूष्णे (यजु-३-८-१५) पूषण, प्रस्तावः परुष्परु (अथर्व ४-९-४) परुषापरु, दावाग्नि
दवग्गी उत त्मना (यजु १३-५२-१) उत आत्मना, अलावु लावू
पत्थवो
परिसंवाद-४
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