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________________ वैदिक भाषा में प्राकृत के तत्त्व २७३ पुव्व विज्ज थेरा कोहलं उच्चा नीचा पत्वा तम्हा जम्हा महा-मह वैष्णवान् पूर्व्य (यजु ४-३५-१) वीर्य (शत ३-२-२-५) वीर्य (३३) आदि व्यञ्जनलोप युवां (ऋ. १-१७-७) युवाम्, स्तुति (३४) मध्य-व्यञ्जनलोप आता (नि० ४-१४२) आगतः, स्थविरः यामि (नि० १००) याचामि, कुतूहलम् (३५) अन्त्य व्यञ्जन लोप उच्चा (ऋ१-१२३-२) उच्चात् नीचा (ऋ२,१३,१२) नीचात् पश्चा (ऋ १-१२३-५) पश्चात् तस्मा (अथर्व ८-१०-१) तस्मात् यस्मा (ऋ १-२५.५) यस्मात् महा (ऋ १-१६५-२) महान् वैष्णवा (यजु ५-२५-१) पद के अंत में रहनेवाले म् का अनुस्वार __ अरं (ऋ १-५-३) अदम् लोकानां (अ० ४-३५-१) लोकानाम् अग्निं (सा० ३) विष्णु (सा० ९१) (३७) विपर्यय निष्टकर्य (वै० प्र० ३-१-१२३) । निसृकर्त्य तर्क (नि० १०१-१३) कर्तुः, वाराणसी (३८) अघोष का घोष गुल्फ (अ० १-२०-२) कुल्फ, एक गात (कत्रे प० ६१) कार्त, अमुकः त्रिष्टुभ (ऋ १०,१४,१६) त्रिष्टुप, आकारः सम्राड् (यजु ४-३९१) सम्राट् घटः (३९) घोष का अघोष विभीदक (प्राकृत विमर्श) विभीतक, भवति अदं अग्निम् विष्णुम् लोआणं अग्गि विण्णु मरहट्ठ वाणारसी एका अमुगो आगारो घडो होदि-हवदि परिसंवाद-४ २२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.212341
Book TitleVaidik Bhasha Me Prakrit Ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsuman Jain, Udaychandra Jain
PublisherZ_Jain_Vidya_evam_Prakrit_014026_HR.pdf
Publication Year
Total Pages21
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size1 MB
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