SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 6
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सांस्कृतिक संकट के बीच प्राकृत अहिंसक समाज-व्यवस्था के लिए अवसर प्रदान करना, श्रमण-धर्म की स्वाभाविक परिणति है | श्रमणों ने युद्ध और हिंसा को कभी धर्म होने की महिमा प्रदान नहीं की, प्रत्युत उसे मानव की विवशता के रूप में भी माना तथा आपसी विवादों को शान्तिपूर्ण ढंग से निपटाना अपने गणतंत्र की नीति बनायी । श्रमणों की अहिंसा सिर्फ प्राणीवध से विरत होना मात्र नहीं है, अपितु व्यक्तिगत एवं सामाजिक तृष्णा और परिग्रह के जितने क्रूर रूप हैं, जिनकी परिणति व्यक्ति-जीवन एवं समाज के अन्यान्य-क्षेत्रों में विषमता, दुःख और दारिद्र्य के रूप में प्रतिफलित होते हैं, उन सबसे विरत होना अहिंसा की वास्तविक प्रतिष्ठा हैं । सर्वसंग्राहकता, जो किसी भी संस्कृति का सर्वस्व होना चाहिए, उसके पुरस्कर्ता श्रमण थे और ब्राह्मण उसके विरोधी । विरोधी-धर्म तथा विरोधी - सामाजिक व्यवस्था के बीच महावीर और बुद्ध के अनुयायियों ने पूरे भारतीय महाद्वीप में श्रेष्ठता के अधिकार से वंचित कोटिकोटि जनता को अपने शास्ता के उपदेशों से आश्वस्त किया और उन्हें साहित्य तथा संस्कृति का मानवीय वर प्रदान किया । श्रमणों में बुद्ध के अनुयायियों ने तो इस महाद्वीप के बाहर भी जाकर विश्व के गोलार्द्ध में श्रमण-धर्म का प्रसार किया । संस्कृति - प्रसार के अभियान में श्रमण जहाँ भी गये, वहाँ उन्होंने अपनी भाषा के साम्राज्य को स्थापित करने की चेष्टा नहीं की । प्रत्युत स्थानीय जनभाषाओं को अंगीकार करके उन्हें ही शिलालेखों और काव्य, साहित्य आदि में उत्कृष्टतम स्वरूप प्रदान किया । पालि, प्राकृत और अपभ्रंश के अनेकानेक भेदों में विभक्त होने के पीछे उनके द्वारा स्थानीय जनभाषाओं के अंगीकार और उसके प्रति आदर का भाव ही मुख्य था । ठीक इसके विपरीत वैदिक धारा के प्रमुख प्रतिनिधि मीमांसकों ने कहा कि महाश्रमण बुद्ध के शब्दों में कथित अहिसा वैसे ही धर्म नहीं है जैसे चमड़े में रखा हुआ गोदुग्ध ग्राह्य नहीं । उनके समक्ष वेदों में संग्रहीत आर्येतर शब्दों की प्रामाणिकता का जब प्रश्न उठा, तो उन्होंने उसे उस दशा में स्वीकृति प्रदान की, जब वे आर्यंविरोधी नहीं हों । जैनों ओर बौद्धों ने अपने शास्ता के उपदेशों को 'आगम' कहा श्रुति नहीं । केवल जैन, बौद्ध ही नहीं, प्रारंभिक सभी वैष्णव, शैव एवं शाक्त आचार्यगण ने भी श्रुति के विरोध में उनसे अपने प्रस्थान की भिन्नता प्रदर्शित करने के लिए अपने आधारभूत साहित्य को 'आगम' कहा और उसके लिए प्राकृतों का माध्यम स्वाकार किया । परवर्ती काल में भा वैष्णव, शैव और शाक्तों पर जब ब्राह्मण-संस्कृति का प्रभाव बढ़ने लगा तो उन्होंने वेदों के विरोध में आगम का ही प्रामाण्य स्त्रीकार परिसंवाद -४ Jain Education International २४५ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.212338
Book TitleSanskritik Sankat Ke Bich Prakrit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagannath Upadhyay
PublisherZ_Jain_Vidya_evam_Prakrit_014026_HR.pdf
Publication Year
Total Pages11
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size909 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy