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________________ सांस्कृतिक संकट के बीच प्राकृत २४९ गान से मनुष्य ही नहीं, पशुओं का हृदय भी द्रवित हो उठता था, घोड़े हिनहिना उठते थे; जिससे उस श्रमण महाकवि का नाम भी अश्वघोष पड़ा । यह सब ठीक था, किन्तु अश्वघोष ने जब अपने काव्य नाटकों के लिए संस्कृत भाषा ग्रहण की, तो उनके द्वारा ही होने वाली प्राकृत की अवमानना की ओर उनका ध्यान क्यों नहीं गया । इस प्रकार का यह एक उदाहरण है । किन्तु ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं है जिनके विश्लेषण से पालि, प्राकृत और अपभ्रंशों का संकट स्पष्ट होता है । देखा जाता है कि जैसे-जैसे संस्कृत के साथ प्राकृत का सहवास बढ़ा, वैसे-वैसे उसकी दशा गिरती गई । साहित्य के नाम पर उत्तरोत्तर प्राकृत एवं पालि भाषाएँ संस्कृत की तरह ही कृत्रिम होती गईं । फलतः प्राकृतें भी सर्वजन की जगह अभिजात वर्ग का प्रतिनिधित्व करने लगीं । प्राचीन काल के प्राकृत साहित्य की अपनी समतावादी संस्कृति थी, एवं साहित्य और संस्कृति के बीच का अन्तर नगण्य था । बाद की प्राकृतों में वह अन्तर बढ़ता गया । इस प्रकार की आदर्श-च्युति के पीछे संस्कृत और ब्राह्मणों की विशिष्टतावादी संकृति के अनुकरण की प्रवृत्ति थी । प्राकृतें जब अपने आदर्श शिखरपर थीं, तो संस्कृत अपने साहित्य गौरव के लिए उनका अनुकरण करती थी, किन्तु स्थानच्युति के साथ दशा बदलती गई । यहाँ तक कि अब संस्कृत के सहवास से प्राकृतें अपना आंशिक रूप भी समाप्त करने जा रही हैं । ग्रन्थों में प्राकृतों पर संस्कृत की कृपा छाया उसके दम को तोड़ती जा रही है । लोकसंस्कृति का प्रतिनिधित्व न होने के कारण संस्कृत को 'मृत भाषा' कहा जाता है, मान भी लें, तो संस्कृत यदि जीवित भाषा नहीं तो उसकी अभिजात संस्कृति का समाज और राज्य पर आज भी प्रभाव जमा है, प्राकृतें तो उतने से भी वंचित हैं । उपर्युक्त बातें तथ्यपूर्ण हैं तो प्रश्न है कि इसके समाधान की दिशा क्या हो । जिसकी ओर मनीषियों एवं तत्त्वचिंतकों का ध्यान जाना चाहिए । परामर्श के रूप में कुछ बातें रखी जा सकती हैं, जिन पर विचार विमर्श होना चाहिए । यह बहुत ही आवश्यक है कि श्रमण जीवन-दर्शन की विशेषताओं को छिपाने वाली व्याख्याओं की ऐतिहासिक एवं तात्विक परीक्षा कर वास्तविकता को प्रकट किया जाय जिससे यह व्यापक भ्रांति समाप्त हो कि श्रमणवादी दर्शन और पालि एवं प्राकृत आदि भाषाएँ वेद-उपनिषदों और संस्कृत की ही प्रसूति हैं । उदाहरण के रूप में अनेकान्तवाद को समन्वयवाद या समझौतावाद समझा जाता है । जैन विद्वान् भी इसका समर्थन करते पाये जाते हैं । इसकी पृष्ठभूमि में वर्तमान समाज का दबाव काम परिसंवाद -४ Jain Education International १९ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.212338
Book TitleSanskritik Sankat Ke Bich Prakrit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagannath Upadhyay
PublisherZ_Jain_Vidya_evam_Prakrit_014026_HR.pdf
Publication Year
Total Pages11
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size909 KB
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