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कामना और ‘मण्डुकोपनिषद' में निर्दिष्ट इन्द्रियों की अधिष्ठात्री देवताएँ, 'तैत्तिरीय' में निर्दिष्ट अन्नमय, प्राणमय आदि पंचकोश का सिद्धान्त, 'ऐतरेय' में कथित पुत्रसन्तति का महत्त्व, ‘बृहदारण्यक' में निर्दिष्ट चातुर्वर्ण्यविषयक मान्यता - इन सभी मुद्दों के बारे में उपनिषद और जैन परम्परा में अत्यन्त मूलगामी भेद हैं ।
* ज्ञानमीमांसा, कर्मसिद्धान्त - पुनर्जन्म और त्रैलोक्य संकल्पना जैन तत्त्वज्ञान में अत्यन्त सुघटित, व्यवस्थित रूप में अंकित है । इन तीनों के बारे में उपनिषद में बिखरे हुए छुटपुट विचार, इधर-उधर प्रसंगोपात्त प्रकट करते हैं ।
* दोनों में निहित नीतिशास्त्रविषयक मूल्यों में हम तर - तम भाव तो नहीं कर सकते लेकिन, ‘जैनों की समग्र चारित्राराधना, उपनिषदों से प्रभावित है' - इस प्रकार का विधान हम हरगीज नहीं कर सकते । यह कहना भी अप्रासंगिक नहीं होगा कि ऋग्वेद से लेकर पुराणों तक पितृ, पिण्ड एवं श्राद्ध ये संकल्पनाएँ अविरत रूप से दिखायी देती है । इस संकल्पना का तनिक भी प्रभाव जैनग्रन्थों में दिखायी नहीं देता ।
* वैदिक परम्परा के दस प्रमुख उपनिषद और प्राकृत भाषा में निबद्ध प्राचीन जैन आगम इन दोनों की सूक्ष्मेक्षिका के से हम इस नतीजे पर पहुँचते हैं कि 'आत्मा' का वर्णन और मानवी आयुष्य के अन्तिम गन्तव्य 'मोक्ष' इन दोनों भारतीय आध्यात्मिक अवधारणाओं का विचार उपनिषद और जैन तत्त्वज्ञान ने किया है । निर्ग्रन्थ याने जैन परम्परा श्रमणधारा का प्राचीनतम आविष्कार है जो वैदिक उपनिषद्गत धारा से कई दृष्टि से विभिन्न है । अगर हमें तुलना करनी ही है तो, उपनिषदों की तुलना 'ऋषिभाषित' नाम के आर्ष प्राकृत में लिखित जैन प्रकीर्णक ग्रन्थ से की जा सकती है । ऋषिभाषित में ४५ आर्हत् ऋषियों के विचार, जैन परम्परा ने अंकित किये हैं । उनमें से लगभग ३० ऋषि वैदिक परम्परा से सम्बन्धित हैं । याज्ञवल्क्य, उद्दालक, आरुणि आदि कई वेदकालीन ऋषियों के विचार इस ग्रन्थ में सुरक्षित हैं । उसी ग्रन्थ के पार्श्वनाथ और वर्धमान महावीर के विचारों की तुलना करके भी हम कह सकते हैं कि, उपनिषद और जैन तत्त्वज्ञान की विचारधाराएँ अलग-अलग हैं ।
१) आचारांग (१), पृ.२०६, २०७ २) कठोपनिषत्, पृ. ४२ से ५४
३) कठोपनिषत्
४) छांदोग्योपनिषत्
५) बृहदारण्यकोपनिषत्
६) छांदोग्योपनिषत्
७) आचारांग (१), पृ. ७४
८) आचारांग (१), पृ. ७७ ९) तैत्तिरीयोपनिषत्, पृ. १८५
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सन्दर्भ
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