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________________ ४४६ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : द्वितीय अध्याय कही हैं. इस कोटि का यति अपने पुत्र के आश्रय में ही रहकर भोजन, वस्त्रादि जीविका की चिन्ता से मुक्त हुआ मोक्षप्राप्ति का प्रयत्न करता है. मूलाचार और साधु' आचार आचार्य बट्टकेर ने मनु की तरह मुनि बनने के लिये न तो कोई आयु-सीमा ही निर्धारित की है और न उनके लिये मुनि बनने से पूर्व गृहस्थाश्रमी बनना ही आवश्यक माना है. उनकी दृष्टि में जिस व्यक्ति के हृदय में कामभोग की अभिलाषा समाप्त हो चुकी हो, जिसकी बुद्धि धर्माभिमुख हो, वही विरक्त कर्मवीर पुरुष निर्माल्य-पुष्प की तरह गृहवास त्याग कर साधु-धर्म स्वीकार कर सकता है. अर्थात् जिस व्यक्ति में उपर्युक्त विशेषताएँ नहीं आ पाई हैं, वह चाहे किसी भी आयु का क्यों न हो, वह यति-धर्म का अधिकारी, अनगार नहीं कहला सकता. सत्य, अहिंसा, अदत्त-परिवर्जन, ब्रह्मचर्य तथा त्रिगुप्तियों में नित्य प्रवृत्ति एवं परिग्रह से निवृत्ति को आचार्य ने साधु के मूल गुण माने हैं. मुनि के लिये मिथ्यात्व, राग, हास्य, रति, अरति, भय, जुगुप्सा, आदि ग्रंथियों से मुक्त होकर यथाजात रूप अर्थात् दिगम्बरत्व स्वीकार कर जिन-प्रणीत धर्म में अनुरक्त रहना अनिवार्य बताया गया है. उनकी राय में साधु सदा निरीह, निष्काम भाव से जीवन-यापन करते हैं, एवं उन्हें इस पंच तत्त्व निर्मित अपने शरीर में किसी तरह की ममता नहीं रहती. आचार्य ने साधु के आवास-काल एवं आवास-स्थान के सम्बन्ध में निम्नलिखित विचार व्यक्त किये हैं : साधु के लिए प्राश्रय लेने का समय सूर्यास्तकाल ही है. वह काल जहां कहीं भी प्राप्त हो जाए. पर, ध्यान यह रहे कि वह आवास भी घर से बाहर हो, घर में नहीं. अनगारों के लिए ग्रामवास एवं नगरवास की सीमा आचार्य ने क्रमशः एक रात और पांच दिन निर्धारित की है. मुनि की उपमा गन्धहस्ति से देते हुए उनके लिए एकान्तवासी होकर ही मुक्ति सुख का अनुभवन करना आवश्यक बताया गया है. एकान्त स्थानों में सामान्यत, गिरि-कन्दरा, शून्य-गृह, पर्वत श्मशानादि के नाम गिनाये गये हैं. मुनि की चर्चा, विहार, भिक्षा आदि के सम्बन्ध में प्राचार्य बट्टकेर के निम्नलिखित आदेश हैं : मुनि पर्वत की गुफाओं में वीरासनादि से अथवा एकपार्श्वशायी रहकर रात्रि व्यतीत करे. उसे वायु की तरह मुक्त, निरपेक्ष एवं स्वच्छन्द होकर ग्राम, नगर, आदि से मण्डित इस पृथ्वी पर परिभ्रमण करना चाहिए. पर विहार करते समय मुनि सतत, सचेष्ट रहे कि कहीं उसकी असावधानी से किसी जीव को क्लेश न पहुंचे. उसे जीवों के प्रति अनुक्षण सतर्क एवं दया-दृष्टि रखनी चाहिए. मुनि के लिए, जीवों के सभी पर्याय एवं अजीव अर्थात् धर्म, अधर्म, आकाश, काल आदि के स्वरूप, सभेद पर्याय आदि का ज्ञान प्राप्त कर ही सावद्य वस्तुओं का त्याग एवं अनवद्य का ग्रहण करना कर्तव्य है. यति तृण, वृक्ष, छाल, पत्र, कन्द, मूल, फल आदि के छेदन करने तथा कराने दोनों ही से अलग रहे. साधु को पृथ्वी का खनन, उत्कीर्णन, चूर्णन, सेवन, उत्कर्षण, बीजन, ज्वालन, मर्दन, आदि कार्यों से दूर रहना चाहिए. इतना ही नहीं, वह इन कार्यों को दूसरे से भी न करावे और न दूसरे के किये हुए का अनुमोदन ही करे. श्रमण-साधुओं के लिये दण्डधारण का सर्वथा निषेध किया गया है. बट्टकेर के मतानुसार साधु को शस्त्र, दण्ड आदि का पूर्णतः त्यागकर सभी प्राणियों में समभाव रखते हुए आत्म-चिन्तनशील होना चाहिए. उसे छठे, आठवें, दसवें, बारहवें आदि भक्तों पर पारणा करना चाहिए और वह भी दूसरों के घर भिक्षा के द्वारा प्राप्त अन्न से, न कि अपने लिए बनाये, बनवाये या बनाने की सहमति से प्राप्त अन्न से. और वह पारणा भी रसास्वादन के लिये नहीं, अपितु चरित्रसाधना के लिये विहित है. आचार्य ने किसी के पात्र में वा अपने हाथ से लेकर अथवा किसी तरह के दोष से युक्त भोजन, मुनि के लिए सर्वथा १. देखिये मूल० अनगारभावनाधिकार. SagmailinduDIANRAICTIMATIVajans DB I TIAADHARAMPAINMUDAR 11 m itigham... 11111thm... hanti.. wagainelibrary.org ___JainEditicalHD Manjirime MAHIN
SR No.212289
Book TitleHindu tatha Jain Sadhu Parampara evam Achar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevnarayan Sharma
PublisherZ_Hajarimalmuni_Smruti_Granth_012040.pdf
Publication Year1965
Total Pages8
LanguageHindi
ClassificationArticle & Achar
File Size977 KB
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