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________________ हिन्दी (मरु-गुर्जर) जैन साहित्य का महत्त्व और मूल्य तरफ झुकता है, उस समय उसकी कृति सरस एवं श्रेष्ठ काव्य का स्प धारण कर लेती है। अपभ्रंश कवि स्वयंभ पुष्पदंत, जोगिन्दु, रामसिंह और धनपाल के पश्चात् मरु-गुर्जर के शालिभद्रसूरि, विनयप्रभसूरि, अम्बदेवसूरि मेरुनन्दन, भट्टारक सकलभूषण, समयसुन्दर, हीरविजय, यशोविजय आदि अनेक उल्लेखनीय श्रेष्ठ कवि है। धर्मोपदेश का प्रसंग जब प्रधान बन जाता है, उस समय वह रचना अवश्य पद्यवद्ध उपदेशात्मक कृति बन जाती है। ऐसी भी तमाम रचनायें हैं, जिनमें श्रावकों के लिए आचार, नियम-व्रत आदि की व्याख्या पद्य में की गई है। जैसे-- देवसेनकृत सावयधम्म दोहा, जिनदत्तसूरि कृत उपदेशरसायन रास आदि, किन्तु समस्त जैन साहित्य निश्चय ही इसी कोटि का नहीं है। वह विपुल और बहु-आयामी है। उन्होंने धार्मिक एवं दार्शनिक विषयों पर प्रचुर सरस-काव्य, नाटक, रास आदि लिखे हैं। इसके साथ ही साहित्यशास्त्र, ज्योतिष, आयुर्वेद, कोष, व्याकरण, गणित, राजनीति, पुराण, शकुन, स्वप्न विचार इत्यादि नाना प्रकार के विषयों पर भी विपुल साहित्य विविध काव्यस्पों और नाना प्रकार के छंदों में प्रस्तुत किया गया है। यह विशाल साहित्य बहुत समय तक शास्त्रभण्डारों में बन्द पड़ा रहा और बाहरी दुनिया के लिए अनजान था। इसकी जानकारी बृहत्तर पाठक समाज को देने का सर्वप्रथम श्रेय यूरोपीय विद्वानों को है। सन् 1845 में अंग्रेज विद्वान् ने वरुरुचि के प्राकृत-प्रकाश का सुसंपादित संस्करण प्रकाशित करके इसका श्रीगणेश किया। उसके बाद जर्मन पंडित पिशेल ने 1877 ई. में हेमचन्द के सिद्ध-हैम का सम्पादन प्रकाशन करके प्राकृत और अपभ्रंश के अध्ययन की नींव डाली। जर्मनी के ही अन्य विद्वान् जैकोबी ने समराइच्चकहा, पउमरचित आदि की विद्वतापूर्ण भूमिकाओं के साथ उनका सम्पादन प्रकाशन करके इनके अनुपम काव्य-पक्ष की तरफ लोगों का ध्यान आकृष्ट किया। भविष्यदत्त और सनत्कुमार के संस्करणों के प्रकाशन ने उस क्षेत्र में अध्ययन की व्यापक संभावनाओं से लोगों को परिचित कराया। भारतीय विद्वानों में हरप्रसाद शास्त्री, पी.डी. गुणे, प्रो. हीरालाल जैन, राहुल सांस्कृत्यायन आदि के पश्चात् सर्वश्री बागची, भायाणी, देसाई, दलाल, मुनिजिनविजय, उपाध्ये, नाहटा आदि ने बड़ा महत्त्वपूर्ण कार्य इस क्षेत्र में किया है। अब तो इधर अनेक विद्धन कार्यरत हो गये है और जैनभण्डारों में भी पुरानी सढ़िवादिता तथा गोपन-वृत्ति नहीं रह गई है। अतः आशा है कि निरन्तर नये-नये ग्रन्थों की शोध, उनके सम्पादन और प्रकाशन से इसके अध्ययन का क्षितिज क्रमशः विस्तृत होता जायेगा। मूल्यात्मकता सामान्य मनुष्य की प्रतिष्ठा अब हम इस साहित्य के मूल्य पर विचार करेंगे। इस साहित्य की कुछ बहुमूल्य विशेषतायें है, जिन्होंने इसे समग्र भारतीय साहित्य में विशिष्ट महत्त्व प्रदान किया है, इनमें सर्वप्रधान विशेषता है काव्य में सामान्य मनुष्य को सम्मान देना। संस्कृत साहित्य में सामान्य व्यक्ति को प्रायः काव्य का नायक नहीं बनाया जाता था। काव्य का साधारण व्यक्ति के साथ सर्वप्रथम सम्बन्ध जैन साहित्य में ही जोड़ा गया। नियम संयम का पालन करने वाला कोई भी आचारवान श्रावक या श्रेष्ठि अथवा साधारण श्रमिक काव्य का चरितनायक बनाया जाने लग क्रान्तिकारी उदार दृष्टिकोण के कारण जैन साहित्य को सच्चे अर्थ में जनता का साहित्य माना जाना चाहिए। आज के जनवादी और प्रगतिशील साहित्य की नींव जैन साहित्य में सुरक्षित है। देशी-भाषाओं के आधुनिक साहित्य को मरु-गुर्जर जैन साहित्य से यह बहुत बड़ी विरासत प्राप्त हुई है। धार्मिक सहिष्णुता आमतौर पर जैन साहित्य में किसी शलाका पुरुष का चरित्र-चित्रण किया जाता है अथवा किसी व्रत-नियम आदि का माहात्म्य बताया जाता है लेकिन अपने मत का प्रतिपादन करते हुए भी अनेकान्तवादी जैनाचार्य 77 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.212285
Book TitleHindi Marugurjar Sajain Sahitya ka Mahattva aur Mulya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherZ_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf
Publication Year1994
Total Pages12
LanguageHindi
ClassificationArticle & Literature
File Size612 KB
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