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________________ हिन्दी (मरु-गुर्जर) जैन साहित्य का महत्त्व और मूल्य हिन्दी का विकास-क्रम एवं उसके साहित्य का वास्तविक इतिहास जानने का एक मात्र प्रामाणिक साधन मरु-गुर्जर जैन साहित्य ही है। . कोई भाषा और उसका साहित्य राज्याश्रय, धर्माश्रय या जनाश्रय में विकसित होता है और सुरक्षित रहता है। जैसा कहा गया है कि हिन्दी को केवल जनाश्रय पर निर्भर करना पड़ा, किन्तु मरु-गुर्जर की कहानी उससे भिन्न रही। इस भाषा-साहित्य को गुजरात, मालवा और राजस्थान में राष्ट्रकूट, परमार और सोलंकी शासकों का संरक्षण प्राप्त हुआ था। मान्यखेट के राष्ट्रकूट राजाओं के मंत्री भी प्रायः जैन हुआ करते थे, जिनके यहाँ जैन मुनियों और कवियों का सम्मान होता था। बरार में उन दिनों जैन वैश्यों का प्राधान्य था। उन्होंने भी मरु-गुर्जर साहित्य को पर्याप्त प्रोत्साहन दिया। राष्ट्रकूटों के पतन के पश्चात् गुजरात के सोलंकी शासकों के समय जैनधर्म की मान्यता राजधर्म के रूप में हो गयी थी। इसलिए यदि स्वयंभू और पुष्पदंत राष्ट्रकूटों की छत्र-छाया में पनपे, तो हेमचन्द्र आदि परवर्ती आचार्यों को सोलंकी शासक सिद्धराज और कुमारपाल का राज्याश्रय प्राप्त था। जैन धर्माचार्यों ने मरु-गुर्जर के प्रचार एवं उसके साहित्य के सृजन एवं संरक्षण में अनुपम योगदान किया। जैनधर्म में दान के सप्त क्षेत्रों में तृतीय क्षेत्र-शास्त्रलेखन एवं संरक्षण का बड़ा महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसके अनुसार प्रत्येक साधु एवं श्रावक के लिए शास्त्राध्ययन, लेखन और संरक्षण उसका आवश्यक कर्तव्य बताया गया है। अतः जैन मन्दिरों और शास्त्रभण्डारों में हस्तप्रतियों के लेखन तथा संरक्षण का बड़ा उत्तम प्रबन्ध किया गया। जैनसंघ तरा स्थापित संचालित ग्रन्थ-भण्डार इस क्षेत्र में अनेक हैं जिनमें जैसलमेर और बीकनेर के विशाल ज्ञानभण्डारों के अतिरिक्त अभयजैन ग्रन्थालय, अनूप पुस्तकालय, प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान आदि उल्लेखनीय हैं। इन भण्डारों में अधिकांश जैन साहित्य सुरक्षित है। जैन धर्मावलम्बी अपने उदार और सहिष्णु दृष्टिकोण के कारण कभी संघर्ष में नहीं पड़े। अधिकतर जैनसाधु संयमी और प्रभावशाली हुए। जैनश्रावक एवं श्रेष्ठी भी इतने सक्षम थे कि उनकी मुसलमानी दरबारों में अच्छी साख थी, जिसके कारण इन शास्त्रभण्डारों पर मुसलमानों की क्रूर दृष्टि शायद ही कभी पड़ी। इसलिए यह साहित्य राज्याश्रय और धर्माश्रय प्राप्त कर विकसित हुआ और सुरक्षित रहा। इन हरत-प्रतियों में समस्त उत्तरभारत के महत्त्वपूर्ण इतिहास की प्रामाणिक सामग्री के साथ ही भाषा-विकास एवं साहित्यिक प्रवृत्तियों की क्रमिक कड़ियाँ सुरक्षित हैं, जिनके आधार पर हम उत्तर-भारत के इतिहास, भाषा, साहित्य और संस्कृति का सही स्वरूप समझ सकते हैं। इनके सम्बन्ध में अप्रामाणिकता का प्रश्न ही नहीं उठता क्योंकि ये धर्म बुद्धि से प्रेरित अत्यन्त श्रद्धापूर्वक लिखी गई और सुरक्षित रखी गई हैं, जबकि अन्य साहित्य की उतनी प्राचीन एवं प्रामाणिक प्रतियाँ उपलब्ध न होने के कारण मूल-ग्रन्थ का वास्तविक पाठ और उसकी भाषा का सही स्वरूप निर्धारित करना कठिन कार्य है। इसलिए मरु-गुर्जर जैन साहित्य की सर्वाधिक महत्ता है क्योंकि उसके आधार पर हम अपनी भाषा और साहित्य का क्रमिक इतिहास और विकास-क्रम ढूंढ सकते हैं। इस सम्बन्ध में एक बात यह सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है कि ये हस्तप्रतियाँ प्रत्येक शताब्दी के प्रत्येक चरण की सन-संवतवार उपलब्ध होने के कारण ऐतिहासिक एवं वैज्ञानिक अध्ययन का ठोस आधार प्रस्तुत करती हैं। यह खेद की बात है कि इस विशाल प्रामाणिक साहित्य के प्रति हिन्दी के इतिहासकार उदासीन रहे हैं। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अपभ्रंश में लिखित बौद्ध एवं जैन धार्मिक साहित्य पर विचार प्रकट करते हुए लिखा -- "सिद्धों और जोगियों की रचनाओं का जीवन की स्वाभाविक सरणियों, अनुभूतियों और दशाओं से कोई सम्बन्ध नहीं है। वे साम्प्रदायिक-शिक्षा मात्र हैं। अतः शुद्ध साहित्य की कोटि में नहीं आती। उन रचनाओं की परम्परा को हम काव्य या साहित्य की कोई धारा नहीं कह सकते। अतः धर्म सम्बन्धी रचनाओं की चर्चा छोड़ कर अब हम सामान्य साहित्य की जो कुछ सामग्री मिलती है उसका उल्लेख करेंगे।" इस उल्लेख के अन्तर्गत उन्होंने हेमचन्द्र, सोमप्रभसूरि, मेरुतुंग, विद्याधर और शााधर का अतिसंक्षिप्त परिचय देकर इस विशाल साहित्य का खाता बन्द कर दिया। वस्तुतः इस साहित्य में जैनधर्म की कोरी उपदेशपरक रचनायें ही नहीं हैं बल्कि इसमें 75 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.212285
Book TitleHindi Marugurjar Sajain Sahitya ka Mahattva aur Mulya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherZ_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf
Publication Year1994
Total Pages12
LanguageHindi
ClassificationArticle & Literature
File Size612 KB
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