SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 2
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ की जो भूमिका मूल्यों के संरक्षण का आश्वासन जगाती थी, वह आज के राजनीतिकों के आचरण की तरह संदिग्ध हो गयी है। भाषा की विश्वसनीयता का टूट जाना सांस्कृतिक संकट का संकेत है। पत्रकारिता राजनीतिकों के मुहावरे की प्रतिध्वनि जान पड़ने लगी है। पुराने पत्रकार अपने विवेक और समृद्ध व्यक्तित्व से राजनीति का दिशा-निर्देश करते थे, राजसत्ता के प्रतिपक्ष की भूमिका में अग्रणी थे। वे साम्राज्यशाही नृशंसता का जिस दृढ़ता और युयुत्सु मुद्रा में मुकाबला करते थे, उसी जागरुकता से, औचित्य के आग्रह से, स्वदेशी राजनेताओं की च्युति पर टिप्पणी करते उन्हें संकोच नहीं होता था। महात्मा गांधी जैसे लोकनायक पर बाबूराव विष्णु पराड़कर ने कड़ी टिप्पणी की थी। आज के पत्रकार राजनीति और राजसत्ता का आनुकूल्य उपलब्ध करने के लिए उनके मुहावरे में बोलने लगे हैं। उपभोक्ता संस्कृति के अभिशाप को लक्ष्य कर राजनेताओं की तरह आवाज टेरने वाले पत्रकार स्वयं व्यावसायिक चाकचिक्य के प्रति सतृष्ण हो गये हैं और उपभोक्ता संस्कृति ही इनकी संस्कृति बनती जा रही है। पत्रकार बुद्धिजीवी - वर्ग की उस सरणि के यात्री हैं, समाज के लिए जिसकी भूमिका प्रत्यक्ष - प्रभावी होती है। इसलिए इस पथ के यात्री के लिये अपेक्षाकृत अधिक जागरुकता की जरूरत होती है। किंचित अनवधानता लोक के अमंगल का कारण बन सकती है। वृन्दावन हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अवसर पर आयोजित प्रथम पत्रकार सम्मेलन के अध्यक्ष बाबूराव विष्णुपराड़कर ने पत्रकार - कुल को संबोधित करते हुए कहा था, “पत्र बेचने के लोभ में अश्लील समाचार को महत्व देकर तथा दुराचरणमूलक अपराधों का चित्ताकर्षक वर्णन कर हम परमात्मा की दृष्टि में अपराधियों से भी बड़े अपराधी ठहर रहे हैं, इस बात को कभी नहीं भूलना चाहिए। अपराधी एकाध पर अत्याचार करके दण्ड पाता है और हम सारे समाज की रुचि बिगाड़कर आदर पाना चाहते हैं।" साम्प्रतिक पत्रकारिता की भाषा-मुद्रा लोक-हितैषी भूमिका नहीं मानी जा सकती। समाज का भाषा - संस्कार पत्रकारिता का महत्वपूर्ण प्रयोजन है, जिसके प्रति हिन्दी की पुरानी पत्रकार - पीढ़ी सचेत थी। हिन्दी के आदि पत्रकार पं0 जुगलकिशोर शुक्ल तक में भाषा शुद्धता का आग्रह और संकरता- सजगता थी। परवर्तीकाल में भाषा-धरातल की धवलता के प्रश्न को लेकर पत्रकारों ने इतिहास प्रसिद्ध विवाद की सृष्टि की थी, जिसकी विधायक उपलब्धि थी भाषा समृद्धि। आज अपने व्यवसाय के लिए लोक का विविध रूपों में उपयोग करने वाले पत्रकार भाषा विषयक अपने गुरुतर दायित्व को कदाचित समझ नहीं रहे हैं और इसे अपेक्षित गुरुता देने को तैयार नहीं हैं। भाषा के अविकसित रूप और भदेश-भंगिमा को संस्कृत करने की ओर प्रवृत्त न होकर लोकप्रियता का कायल पत्रकार पत्रकारिता की परिनिष्ठित भाषा - मुद्रा को जागरूक आयास द्वारा संकरता की उस पटरी से चलाने लगा है जो भाषा-संस्कार को चिढ़ाती है तथा कथित जनवाद का कदाचित् यह भी एक प्रयोजन है और भाषा की अधोगामी यात्रा क्षिप्रतर होती जा रही है, जो पत्रकारों के दायित्व से जुड़ा एक महत्वपूर्ण मुद्दा है। ऐतिहासिक तथ्य है कि पुराने पत्रकार अनेकमुखी प्रतिकूलता के बावजूद अपनी निष्ठा से अपने समय की चुनौती का सामना करते थे। जिस समाज को वे संबोधित कर रहे थे वह उनकी लड़ाई में सहयात्री बनने को तैयार नहीं था। उस समाज का राजनीतिक संस्कार अविकसित था। अज्ञान की कठोर जमीन से उनकी आस्था की लड़ाई थी। मगर वे उस ऊंचे जातीय आदर्श से प्रेरणा-स्फूर्त थे कि "राजनीति और समाजनीति का संशोधन जैसा समाचार पत्रों से होता है, वैसा दूसरे उपाय से नहीं हो सकता।" देश-प्रीति की इस प्रेरणा से उन्होंने पत्रकारिता की विकट-राह को अपनी यात्रा के लिये चुना था। आज स्थिति पूरी तरह बदल गयी है। पत्रकारिता की विकसित सुविधाओं के आकर्षण से इस विधा से, निरापद और विलासपूर्ण जीवन के आकांक्षी जुड़ रहे हैं। इसलिए स्वाभाविक रूप में अपने धर्म की बुनियादी आचार-संहिता का भी उन्हें ध्यान नहीं रहता। विलास की अमर्यादित भूख और व्यवसायवाद की प्रभुता के सामने निष्ठा की रक्षा कर पाना बड़ी चुनौती है। आज इस चुनौती का सही कोण से सामना करने वाले पत्रकार विरल हैं। परिणामत: पत्रकारिता की स्वकीय सत्ता दिन-दिन निष्प्रतिभ हो रही है। तकनीकी साधन-समृद्धि लोक-मंगल का निमित्त बनकर ही सार्थक हो सकती है, इस समझ का तिरस्कार कर चलने वाले आज के अधिकतर पत्रकार व्यवसाय-प्रभुता के सामने नमित हो गये हैं। कृती साहित्यकार अज्ञेय, भारती, रघुबीरसहाय और मनोहर श्याम जोशी ने पूंजीपति-प्रतिष्ठान के समृद्ध साधन का विधायक उपयोग कर अपने जागरूक विवेक तथा दक्षता का प्रमाण दिया था। उनमें सम्पादक की गरिमा-रक्षा की अपेक्षित सजगता और कौशल था। 'भारत' से सम्बद्ध श्री हेरम्ब मिश्र और 'नई दुनिया' तथा 'नव भारत टाइम्स' से जुड़े स्व0 राजेन्द्र माथुर की प्रखर भूमिका, आश्वासन के क्षीण आधार के रूप में, स्मरणीय है। और स्मरणीय है पीड़क तथ्य वर्तमान इतिहास का कि सत्ता पर बैठी स्वदेशी राजनीति ने बुद्धिजीवियों के सामने 'आपातकाल' के रूप में चुनौती खड़ी की थी, जो आजाद देश की पत्रकारिता के सामने सबसे बड़ी चुनौती थी, तो बड़े-बड़े और नामवर लोगों की गुमानी मुद्रा म्लान पड़ गई थी। कुछेक अपवाद रहे हैं, पर सामान्य स्थिति यही रही है । कि चुनौती का हर अवसर उनकी लोकहित-विवर्जित भूमिका और चारित्रिक दौर्बल्य को बेनकाब करता रहा है। पत्रकारों को कृती भूमिका का आमंत्रण देने वाली स्वाधीन भारत की ऐतिहासिक घटना थी, स्वदेशी सरकार के कुशासन स्वेच्छाचारिता और दाम्भिकता के प्रतिरोध में सक्रिय जयप्रकाश नारायण का आंदोलन। उस आंदोलनके पक्ष-समर्थन में क्रियाशील इण्डियन एक्सप्रेस प्रतिष्ठान की भूमिका आजाद देश की स्मरणीय युयुत्सु भूमिका थी। कुछेक लघुपत्रिका के उद्योक्ताओं के प्रखर स्वर ने पराड़कर जी की रणभेरी' जैसी पत्रिकाओं की युयुत्सा-मुद्रा की याद ताजा कर दी थी। हिन्दी पत्रकारिता की जन्मभूमि कलकत्ता से प्रकाशित 'चौरंगी वार्ता' और उसके उद्योक्ता डॉ. राजेन्द्र सिंह तथा अशोक सेकसरिया की भूमिका जातीय निष्ठा और चारित्र्य-प्रेरित भूमिका थी। दूसरे प्रदेशों और दूसरी भाषाओं में जातीय उद्वेलन के उस अंधकार काल में समय हीरक जयन्ती स्मारिका विद्वत् खण्ड / १७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.212283
Book TitleHindi Patrakarita Virasat ki Roshani aur Sampratik Dasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushn Bihari Mishr
PublisherZ_Jain_Vidyalay_Hirak_Jayanti_Granth_012029.pdf
Publication Year1994
Total Pages4
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size609 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy