SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 4
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ० Jain Education International ६४६ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठम खण्ड आसन प्राणायाम प्रत्याहार धारना ध्यान समाधि महारस पीजै ।।२७ समारो ॥ कीजे । उसी प्रकार अनहद नाद के विषय में लिखते हैं अनहद सबद सदा सुन रे । आप ही जानें और न जाने; कान बिना सुनिये धुन रे ॥ अमर गुंज सम होत निरन्तर, ता अन्तर गति चितवन रे ॥ २८ इसीलिए द्यानतरायजी ने सोहं को तीन लोक का सदैव ही 'सोहं सोहं' की ध्वनि होती रहती है और जो सोहं श्रेष्ठ है सार कहा है। जिन साधकों के श्वासोच्छ्वास के साथ के अर्थ को समझकर, अजपा जाप की साधना करते हैं, वे सोहं सोहं होत नित, सांस उसास मझार । ताको अरथ विचारियै, तीन लोक में सार ।। तीन लोक में सार, धार सिव खेत निवासी । अष्ट कर्म सौं रहित, सहित गुण अष्ट विलासी ॥ जैसो तसो आप थाप, निहचे तजि सोहं । अजपा जाप सँमार, सार सुख सोहं सोहं ॥ २९ आनन्दघन का भी यही मत है कि जो साधक आशाओं को मारकर अपने अन्त में अजपा जाप को जगाते हैं वे चेतन मूर्ति निरंजन का साक्षात्कार करते हैं । इसीलिए सन्त आनन्दघन भी सोहं को संसार का सार मानते हैंचेतन ऐसा ज्ञान विचारो । सोहं सोहं सोहं सोहं सोहं अणु इस अजपा की अनहद ध्वनि उत्पन्न होने पर आनन्द के वती नारी के सदृश भावविभोर हो उठती है नबी या सारो 13t मेघ की झड़ी लग जाती है और जीवात्मा सौभाग्य "उपजी धुनि अजपा की अनहद, जीत नगारेवारी । झड़ी सदा आनन्दघन बरखत, बन मोर एकनतारी ॥ ३२ सहज योग साधनाजन्य रहस्यभावना में साधक आध्यात्मिक क्षेत्र को अधिकाधिक विशुद्ध करता है तथा ब्रह्म (परमात्मा) और आत्मा के सम्मिलन अथवा एकात्मकता की अनुभूति तथा तज्जन्य अनिर्वचनीय परम सुख का अनुभव करता है। इन्हीं साधनात्मक अभिव्यक्तियों के चित्रण में वह जब कभी अपनी साधना के सिद्धान्तों अथवा पारिभाषिक शब्दों का भी प्रयोग करता है । इस शैली को डॉ० त्रिगुणायत ने पारिभाषिक शब्दमूलक रहस्यवाद और आध्यात्मिक रहस्यवाद कहा है । 33 इस तरह मध्यकालीन जैन साधकों की रहस्यसाधना अध्यात्ममूलक साधनात्मक रहस्यभावना की सृष्टि करती है । भावनात्मक रहस्यभावना में साधक की आत्मा के ऊपर से जब अष्टकर्मों का आवरण हट जाता है और संसार के मायाजाल से उसकी आत्मा मुक्त होकर विशुद्धावस्था को प्राप्त कर लेती है तो उसकी भावदशा भंग हो जाती है । फलतः साधक विरह-विधुर हो तड़प उठता है । यह आध्यात्मिक विरह एक ओर तो साधक को सत्य की खोज अर्थात् परमपद की प्राप्ति की ओर प्रेरित करता है और दूसरी ओर उसे साधना में संलग्न रखता है। साधक की अन्तरात्मा विशुद्धतम होकर अपने में ही परमात्मा का रूप देखती है तब वह प्रेम और श्रद्धा की अतिरेकता के कारण उससे अपना घनिष्ट सम्बन्ध स्थापित करने लगती है। यही कारण है कि कभी साधक उसे पति के रूप में देखता है और कभी पत्नी के रूप में, क्योंकि प्रेम की चरम परिणति दाम्पत्य रति में देखी जाती है । अतः रहस्यभावना की अभिव्यक्ति सदा प्रियतम और प्रिया के आश्रय में होती है । आध्यात्मिक साधना करने वाले जैन और जैनेतर सन्तों एवं कवियों ने इसी दाम्पत्यमूलक रतिभाव का For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.212279
Book TitleHindi Jain Kavya me Yog sadhna aur Rahasyawad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherZ_Pushkarmuni_Abhinandan_Granth_012012.pdf
Publication Year
Total Pages17
LanguageHindi
ClassificationArticle & Kavya
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy