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________________ Jain Education International ६४४ श्री पुष्कर मुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठम खण्ड योग का तात्पर्य है यम-नियम का पालन करना । यम का अर्थ है इन्द्रियों का निग्रह और नियम का अर्थ है महाव्रतों का पालन । पंचेन्द्रियों के निग्रह के साथ ही 'अन्तर्विजय' का विशेष महत्व है । उसे ही सत्यब्रह्म का दर्शन माना जाता है - " अन्तर विजय सूरता सांची, सत्यब्रह्म दर्शन निरवाची ।"" इसी से योगी के मन की परख की जाती है। ऐसा ही योगी धर्मध्यान और शुक्लध्यान को पा जाता है दौलतराम ने ऐसे ही योगी के लिए कहा है"ऐसा योगी क्यों न अभयपद पावै, सो फेर न भव में आवै । "" बनारसीदास का चिन्तामणि योगी आत्मा सत्यरूप है जो त्रिलोक का शोक हरण करने वाला है और सूर्य के समान उद्योतकारी है।" कवि द्यानतराय को उज्ज्वल दर्पण के समान निरंजन आत्मा का उद्योत दिखाई देता है। वही निर्विकल्प शुद्धात्मा चिदानन्दरूप परमात्मा है जो सहज-साधना के द्वारा प्राप्त हुआ है इसीलिए कवि कह उठता है"देखो भाई आतमराम विराजे । साधक अवस्था के प्राप्त करने के बाद साधक के मन में दृढ़ता आ जाती है और वह कह उठता है "अब हम अमर भये न मरेंगे ।" शुद्धात्मावस्था की प्राप्ति में समरसता और तज्जन्य अनुभूति का आनन्द जैनेतर कवियों की तरह जैन कवियों ने भी लिया है। उसकी प्राप्ति में सर्वप्रथम द्विविधा का अन्त होना चाहिए जिसे बनारसीदास और भैया भगवतीदास ने दूर करने की बात कही है। आनन्द तिलक की आत्मा समरस में रंग गई "समरस भावे रंगिया अप्पा देखई सोई, अप्पर जाइ परहणई आणंद करई निरालंब होई ।" यशोविजय ने भी उनका साथ दिया । २ बनारसीदास को वह कामधेनु चित्रावेलि और पंचामृत भोजन जैसा लगा।" उन्होंने ऐसी ही आत्मा को समरसी कहा है जो नय पक्षों को छोड़कर समतारस ग्रहण करके आत्मस्वरूप की एकता को नहीं छोड़ती और अनुभव के अभ्यास से पूर्ण आनन्द में लीन हो जाती है।" ये समरसी सांसारिक पदार्थों की चाह से मुक्त रहते हैं- "जो समरसी सदैव तिनकों कछू न चाहिए। ऐसा समरसी ब्रह्म ही परम महारस का स्वाद चख पाता है । उसमें ब्रह्म, जाति, वर्णं, लिंग, रूप आदि का भेद अब नहीं रहता । भूधरदास जी को सम्यक्त्व की प्राप्ति होने के बाद कैसी आत्मानुभूति हुई और कैसा समरस रूपी जल झरने लगा, यह उल्लेखनीय है " अब मेरे समकित सावन आयो || बीति कुरीति मिथ्यामति ग्रीषम, पावस सहज मुहायो ॥ अनुभव दामिनि दमकन लागी, सुरति घटा घन छायो । बोले विमल विवेक पपीहा सुमति सुहागिन भायो । मूल धूल कहि मूल न सूझत, समरस जल झर लायो । मूषर को निकले अब बाहिर, निज निरन पर पायो ॥" आनन्दघन पर हठयोग की जिस साधना का किंचित् प्रभाव दिखाई देता है वह उत्तरकालीन अन्य जैनाचार्यो में नहीं मिलता अनन्त ॥ "आतम अनुभव रसिक को, अजब सुन्यो बिरतंत । निर्वेदी वेदन करें, वेदन करं माहारो बालुडो सन्यासी देह देवल मठवासी । इडा-पिंगला मारग तजि जोगी, सुषमना घरबासी ॥ ब्रह्मरंध्र मधि सांलन पूरी, बाऊ अनहद नाद बजासी । यम नीयम आसन जयकारी, प्राणायाम अभ्यासी ॥ प्रत्याहार धारणा धारी, ध्यान समाधि समासी । मूल उत्तर गुण मुद्राधारी, पर्यंकासन वासी ॥ " नतराय ने उसे गूंगे का गुड़ माना ।" इस रसायन परमानन्द बनता है ।" उसे हरि, हर ब्रह्मा भी कहा जाता है। दौलतराम ने "शिवपुर की डगर समरस सौ मरी, सो विषय विरस रुचि चिरविसरी" कहा है। २० का पान करने के उपरान्त ही आत्मा निरञ्जन और आत्मा और परमात्मा के एकत्व की प्रतीति को ही For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.212279
Book TitleHindi Jain Kavya me Yog sadhna aur Rahasyawad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherZ_Pushkarmuni_Abhinandan_Granth_012012.pdf
Publication Year
Total Pages17
LanguageHindi
ClassificationArticle & Kavya
File Size2 MB
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