SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 14
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६५६ श्री पुष्करमुनि अभिनम्बन प्रन्थ षष्ठम खण्ड भरपूर ॥४॥ या दरिया में नपो खोया सहु काल विनानी अमृतवानी, अरु मृग का लांछन कहिये। श्री शांति जिनेश नरोत्तम को प्रमु, आज मिला मेरी सहिये। -बनारसी विलास, श्री शांति जिन स्तुति, पद्य १, पृ० १८६ ३७ मेरा मन का प्यारा जो मिल । मेरा सहज सनेही जो मिल ॥१॥ उपज्यो कंत मिलन को चाव। समता सखी सों कहै इस भाव ॥२॥ मैं विरहिन पिय के आधीन । यों तलफों ज्यों जल बिन मीन ॥३॥ बाहिर देखू तो पिय दूर । बट देखे घट में भरपूर ॥४॥ हो मगन मैं दरशन पाय। ज्यों दरिया में बूंद समाय ॥६॥ पिय को मिलों अपनपो खोय । ओला गल पाणी ज्यों होय ॥१०॥ -बनारसी विलास, अध्यातम गीत १-१०, पृ० १५८-१६० ३८ वही, अध्यातम गीत १५-२६, पृ० १६१-१६२ एक ही जाति है । प्रिय उसके घट में विराजमान है और वह प्रिय में । दोनों का जल और लहरों के समान अभिन्न सम्बन्ध है । प्रिय कर्ता है और वह करतूति, प्रिय सुख का सागर है और वह सुख-सींव है। यदि प्रिय शिव मन्दिर है तो वह शिवनींव, प्रिय ब्रह्मा है तो वह सरस्वती, प्रिय माधव है तो वह कमला, प्रिय शंकर है जो वह भवानी, प्रिय जिनेन्द्र हैं तो वह उनकी वाणी है। इस प्रकार जहाँ प्रिय है वहाँ वह भी प्रिय के साथ में है । दोनों उसी प्रकार से है "ज्यों शशि हरि में ज्योति अभंग" है। ३६ बनारसी विलास, अध्यातम पद पंक्ति १०, पृ० २२८-२६ ४० बनारसी विलास ४१ हिन्दी पद संग्रह, पृ० ३-५ ४२ हिन्दी पद संग्रह, पृ० १६; जिनहर्ष का नेमि-राजीमती बारहमास सर्वया १, जैन गुर्जर कविओं, खंड २, भाग ३, पृ० ११८०; विनोदीलाल का नेमि-राजुल वारहमासा, बारहमासा संग्रह, जैन पुस्तक भवन कलकत्ता, तुलनार्थ देखिये। ४३ नेमिनाय के पद, हिन्दी जन भक्ति काव्य और कवि, पृ० १५७; लक्ष्मीबल्लभ का भी वियोग वर्णन देखिये जहाँ ___ साधक की परमात्मा के प्रति दाम्पत्यमूलक रति दिखाई देती है, वही, नेमिराजुल बारहमासा, १४, पृ० ३०६ ४४ भूधर विलास १३, पृ०८ ४५ वही, ४५, पृ० २५ ४६ पंच सहेली गीत, लूणकरजी पाण्डया मन्दिर, जयपुर के गुटका नं० १४४ में अंकित हैं; -हि० जैन भक्ति काव्य और कवि पृ० १०१-१०३ ४७ ब्रह्म विलास, शत अष्टोत्तरी, २७वा पद्य, पृ० १४ ४६ आनन्दघन बहोत्तरी, ३२-४१ ४६ पिया बिन सुधि-बुधि मंदी हो। विरह भुवंग निसा समै, मेरी सेजड़ी खू दी है। भोयनपान कथा मिटी, किसकूँ कहुँ सुद्धी हो । -वही, ६२ ५० आनन्दघन बहोत्तरी, ३२ ५१ वही, २० ५२ शिव-रमणी विवाह, १६-अजयराज पाटणी, बधीचन्द मन्दिर, जयपुर गुटका नं० १५८, वेष्टन नं० १२७५ ५३ श्री चूनरी, इसकी हस्तलिखित प्रति मंगोरा (मथुरा) निवासी पं० बल्लभराम जी के पास सुरक्षित है; अपभ्रंश ___ और हिन्दी में जैन रहस्यवाद, पृ० ६० ५४ विषम विरण पूरो भयो हो, आयो सहज वसन्त । प्रगटी सुरुचि सुगन्धिता हो, मन मधुकर मयमंत । अध्यातम बिन क्यों पाइये हो ॥२॥ सुमति कोकिला गहगही हो बही अपूरब वाउ । भरम कुहर बादर फटे हो, घट जाड़ो जड़ ताउ ॥अध्यातम०॥३॥ मायारजनी लघु भई हो, समरस दिवशशि जीत । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.212279
Book TitleHindi Jain Kavya me Yog sadhna aur Rahasyawad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherZ_Pushkarmuni_Abhinandan_Granth_012012.pdf
Publication Year
Total Pages17
LanguageHindi
ClassificationArticle & Kavya
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy