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________________ हमारे ज्योतिर्धर आचार्यश्री : आचार्य जीतमलजी महाराज : व्यक्तित्व दर्शन १११ । ०० को उन्होंने बत्तीस बार लिखा था। आपके द्वारा लिखित एक आगम बत्तीसी जोधपुर के अमर जैन ज्ञान भण्डार में उपलब्ध है और कुछ आगम उदयपुर तारक गुरु जैन ग्रन्थालय, शास्त्री सर्कल, के संग्रहालय में हैं। आपके द्वारा लिखित नौ आगम बत्तीसी आपके सम्प्रदाय की साध्वियाँ चम्पाजी जो अजमेर में लाखन कोठडी में अवस्थित (चम्पाजी का स्थानक) स्थानक में स्थानापन्न थीं, उनके पास रखी गयी थीं। पर परिताप है कि स्थानकवासी समाज की साहित्य के प्रति उपेक्षा होने के कारण वे नौ बत्तीसियाँ और हजारों ग्रन्थ कहाँ चले गये आज उसका कुछ भी पता नहीं है। जैन श्रमण होने के नाते से वह सारा साहित्य जो आपने लिखा था वह गृहस्थों के नेश्राय में कर देने से और उनकी, साहित्य के प्रति रुचि न होने से नष्ट हो गया है । उन्होंने उर्दू-फारसी में भी ग्रन्थ लिखे थे, उसमें से एक ग्रन्थ अभी विद्यमान है। एक फारसी के भाषा-विशेषज्ञ को हमने वह ग्रन्थ बताया था। उसने कहा यह बड़ा ही अद्भुत ग्रन्थ है इस ग्रन्थ में महाराजश्री ने अपने अनुभूत अद्भुत प्रयोग लिखे हैं। इस ग्रन्थ को देखने से ऐसा ज्ञात होता है कि महाराजश्री का ज्ञान बहुत ही गहरा था। एक जैन श्रमण विविध विषयों में कितनी तलस्पर्शी जानकारी रख सकता है इससे स्पष्ट होता है। यह ग्रन्थ ज्ञान का अद्भुत भण्डार है। आप कुशल कवि भी थे। आपने अनेक ग्रन्थ कविता में भी बनाये हैं। चन्द्रकलारास यह आपकी एक महत्वपूर्ण रचना है जो आपश्री के हाथ से लिखा हुआ है। उसके अठारह पन्ने हैं। प्रत्येक पन्ने में सत्रह पंक्तियाँ हैं और सूक्ष्माक्षर हैं। ग्रन्थ में लेखक ने अपना नाम नहीं दिया है और नाम न देने का कारण बताते हुए उसने लिखा है-- "हँ मतिमन्द बालकवत कोधो, हकम सामियां बोधो रे।। लोपी जे मर्याद प्रसिद्धो, मिच्छामि दुक्कडं लीधो रे॥ अर्थात्, आचार्यश्री अमरसिंहजी महाराज की परम्परा में उस समय ऐसा नियम बनाया गया था कि कविता आदि न लिखी जाय, क्योंकि कवि को कभी-कभी अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन भी करना पड़ता है और उस वर्णन से सत्य महाब्रत में दोष लगने की संभावना है । अतः कवि ने कविता लिख करके भी अपना नाम नहीं दिया। सम्भव है जीतमल जी महाराज से पूर्व भी आचार्य प्रवरों ने तथा अन्य मुनिगणों ने कविताएँ आदि लिखी हों पर नाम न देने से यह पता नहीं चलता कि ये कविताएँ किन की बनाई हुई हैं । आपका द्वितीय ग्रन्थ शंखनृप की चौपाई है। यह चार खण्डों में विभक्त है। इसमें छत्तीस ढालें हैं और बाईस पन्ने हैं । ग्रन्थ के अन्त में प्रशस्ति में कवि ने लिखा है सम्मत अठारे चोपने, जेठ वद बारस दिन में रे । नगर बालोतरो भारी, रिष जीत भणे सुखकारी रे ॥ आपकी तृतीय रचना कौणिक संग्राम प्रबन्ध है। इस प्रबन्ध में सत्तावीस ढाले हैं और दस पन्ने हैं और प्रत्येक पन्ने में चौदह पंक्तियाँ हैं और सूक्ष्माक्षर हैं । उसके अन्त में प्रशस्ति में लिखा है-- एम सुणी ने चेतजाए, लोभ थकी मन वाल । ____ सेंठा रह जो सन्तोष में ए, भयो जीत रसाल । एक बार आचार्यश्री जीतमलजी महाराज जोधपुर राज्य के रोइट ग्राम में विराज रहे थे। उस समय साम्प्रदायिक वातावरण था और उस युग में एक दूसरे की आलोचना-प्रत्यालोचना की जाती थी। उस समय के ग्रन्थ इस बात की साक्षी हैं-रात्रि का समय था । तेरह पन्थ के चतुर्थ आचार्य जीतमल जी भी वहाँ आये हुए थे और आपश्री भी वहाँ पर विराज रहे थे। आपने उस समय उनके दयादान के विरोध में एक लघु-काव्य का सृजन किया जिसकी कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार हैं छांड रे जीव पत पात पाखण्डनी, समकीत रहत नहीं मूल बाकी । देव गुरु धर्म उत्थापियो पापियां, नागडा दीधी छे खोय नाकी । साधु मुख सांभली वाणी सिद्धान्त री सावण में जवासो जेम सूखे । नाम चर्चा रो लिया थका नागडा, सियालिया जेम दिन रात रुके। आपकी पांचवीं रचना पूज्य गुणमाला प्राप्त होती है। आचार्यश्री तुलसीदासजी महाराज के गुणों का उत्कीर्तन करते हुए अन्त में लिखा है ka LING Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.212266
Book TitleHamare Jyotirdhar Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni Shastri
PublisherZ_Pushkarmuni_Abhinandan_Granth_012012.pdf
Publication Year
Total Pages10
LanguageHindi
ClassificationArticle & Ascetics
File Size5 MB
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