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________________ ........................ हमारे ज्योतिर्धर आचार्यः आचार्यप्रवर श्री सुजानमलजी महाराज १०६ जागृत करते हुए जब सरवाड़ पधारे तब आचार्यश्री के त्याग - वैराग्य से छलछलाते हुए प्रवचनों को सुनकर अपनी मातेश्वरी याजूबाई तथा भगिनी के साथ आचार्य प्रवर के सान्निध्य में वि० सं० १८१८ की चैत्त शुक्ला ग्यारस सोमवार को आपने आर्हती दीक्षा ग्रहण की। आचार्यश्री के सान्निध्य में रहकर आगम का गहराई से अध्ययन किया। आपकी प्रवचन - कला बहुत ही चित्ताकर्षक थी, जो श्रोताओं के दिल और दिमाग को आकर्षित कर लेती थी। आपने मेवाड़, मारवाड़, और मध्यप्रदेश में परिभ्रमण कर हजारों भव्य प्राणियों को प्रतिबोध प्रदान किया । आचार्य प्रवर तुलसीदास जी महाराज ने आपको सुयोग्य शिष्य समझकर आचार्य पद प्रदान किया। आपने अपने आचार्य काल में धर्म की ज्योति जागृत की । अनेकों व्यक्तियों ने श्रामण्य प्रव्रज्या ग्रहण कर आपका शिष्यत्व स्वीकार किया। आप जहाँ भी पधारे वहाँ अपने यशः सौरभ से जन-जन के मन को मुग्ध किया । विहार करते हुए आचार्यश्री किशनगढ़ पधारे। आचार्यश्री के प्रवचनों में जनता उमड़ पड़ी। किसे ज्ञात था कि आचार्यश्री लघुवय में ही संसार से बिदा हो जायेंगे। शरीर में व्याधि उत्पन्न होने पर इसके उपचार का प्रयास किया गया। श्रद्धालुगण सेवा में प्रस्तुत था । उपचार करने के बावजूद भी व्याधि शैतान की आंत की तरह बढ़ रही थी । शरीर एक था, व्याधियाँ अनेक थीं। रोगों ने ऐसे महापुरुष पर आक्रमण किया था जिसकी वेदना केवल उन्हीं को ही नहीं अपितु अनगिनत श्रद्धालुओं को वह अभिभूत कर रही थी । रोगी वीर सेनानी की भाँति रोगों से जूझ रहा था, किन्तु उसके श्रद्धालु उस युद्ध में उसका साथ नहीं दे पा रहे थे। वे आचार्य के प्रति मोह से ग्रसित थे । अन्त में आचार्यश्री ने देखा मेरा शरीर अब रोगों का घर बन चुका है, मुझे सावधानी से ही इस शरीर का त्याग करना चाहिए। यदि शरीर ने मुझे छोड़ा, इसमें बहादुरी नहीं है । उन्होंने प्रसन्नता से चतुर्विध संघ की साक्षी से अनशन व्रत ग्रहण किया और वि० सं० १८४९ की ज्येष्ठ कृष्णा अष्टमी मंगलवार को वे स्वर्गस्थ हुए । युवा आचार्य के स्वर्गवास से समाज ने भारी आघात का अनुभव किया । किन्तु क्रूर काल के सामने किसका जोर चला है ? आचार्यश्री का भौतिक देह नष्ट हो गया किन्तु वे यशः श शरीर से आज भी जीवित हैं और भविष्य में भी सदा जीवित रहेंगे । आचार्य श्री जीतमलजी महाराज : व्यक्तित्व दर्शन समय-समय पर विश्व के क्षितिज पर ऐसे विशिष्ट व्यक्तियों का उदय होता है जो अपने अलौकिक व्यक्तित्व और कृतित्व से जन-जन का पथ-प्रदर्शन करते हैं। भूले भटके जीवन राहियों को मार्ग दर्शन देते हैं । उन्हीं विशिष्ट व्यक्तियों की श्रृंखला में आचार्य प्रवर श्री जीतमलजी महाराज का भी नाम आता है। वे एक मनीषी और मनस्वी सन्त थे । उन्होंने जैन साहित्य और कला के क्षेत्र में एक अद्वितीय कीर्तिमान स्थापित किया। जो आज भी चिन्तकों के लिए प्रेरणादायी है। आपश्री का जन्म हाडोती राज्य के अन्तर्गत रामपुरा में हुआ था । आपश्री के पिता का नाम सुजानमल जी और माता का नाम सुभद्रा देवी था। आपका जन्म कार्तिक शुक्ला पंचमी वि० सं० १८२६ में हुआ था। माता-पिता के संस्कारी जीवन का असर आपके जीवन पर पड़ा था । Jain Education International विक्रम संवत् १८३३ में आचार्य प्रवर सुजानमल जी महाराज का रामपुरा में पदार्पण हुआ। उनके पावन प्रवचनों को सुनकर सुभद्रादेवी को और कुमार जीतमल के अन्तर्मानस में वैराग्य भावना उबुद्ध हुई । पुत्र ने अपने हृदय की बात माँ को कही। माँ मेरे पिताजी का नाम और आचार्यश्री का नाम एक ही है। आचार्य श्री का उपदेश तो ऐसा है मानो अमृत रस हो । उस अमृत रस का पान चाहे कितना भी किया जाय, तृप्ति नहीं होती। पर एक अद्भुत आनन्द की उपलब्धि होती है। आचार्य प्रवर के उपदेश को सुनने के पश्चात् मेरे मन में ये विचार प्रतिपल प्रतिक्षण समुत्पन्न हो रहे हैं कि मानव का जीवन कितना अमूल्य है जिसको प्राप्त करने के लिए देवता भी छटपटाते For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.212266
Book TitleHamare Jyotirdhar Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni Shastri
PublisherZ_Pushkarmuni_Abhinandan_Granth_012012.pdf
Publication Year
Total Pages10
LanguageHindi
ClassificationArticle & Ascetics
File Size5 MB
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