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स्वास्थ्य पर धर्म का प्रभाव
-युवाचार्य महाप्रज्ञ [सुख्यात दार्शनिक, बहुश्रु त विद्वान् तथा प्रेक्षाध्यान-योग के अनुभवी साधक एवं प्रवक्ता
मनुष्य इस विश्व का सर्वश्रेष्ठ प्राणी है। इसकी श्रेष्ठता का मानदण्ड है-विकसित नाड़ीतन्त्र । मनुष्य को जैसा नाड़ीतन्त्र उपलब्ध है, वैसा किसी अन्य प्राणी को उपलब्ध नहीं है । इस गरिमामय उपलब्धि के लिये उसे सर्वश्रेष्ठ कहा जा सकता है । उसके मस्तिष्क की संरचना बहुत जटिल है । उसका मेरुदण्ड बहुत शक्तिशाली है। उसे अस्थि मज्जा की विशिष्टता प्राप्त है। अस्थि-रचना केवल एक ढांचा नहीं है, केवल एक आधार नहीं है, उसमें अनेक विशेषताएँ छिपी हुई हैं। सुदृढ अस्थिरचना वाला व्यक्ति ही मन पर नियन्त्रण कर सकता है, मानसिक एकाग्रता को साध सकता है। अस्थिरचना के साथ स्वास्थ्य का भी गहरा सम्बन्ध है। अपने आप में रहने वाला स्वस्थ (स्वास्मिन् तिष्ठति इति स्वस्थ) कहलाता है। स्वस्थ की यह व्युत्पत्ति दूसरे नम्बर की है। उसकी पहले नम्बर की व्युत्पत्ति है-जिसकी अस्थियाँ अच्छी होती हैं वह स्वस्थ (सुष्ठ अस्थि यस्य स स्वस्थः) होता है । मनुष्य के संस्कार अस्थि और मज्जा में अन्तर्निहित होते हैं। जैसा संस्कार वैसा विचार, व्यवहार और आचार ।।
स्वास्थ्य का सम्बन्ध केवल शरीर से नहीं है । शरीर, मन और भावना-इन तीनों की समीचीन समन्विति का नाम स्वास्थ्य है । बहुत लोग स्वस्थ रहने के लिये पोषक द्रव्यों पर ध्यान केन्द्रित किये हुए हैं । यह शारीरिक स्वास्थ्य का एक बिन्दु हो सकता है। शरीर अकेला नहीं है, वह एक समन्वय है। अकेला शरीर स्वस्थ नहीं रह सकता । मन स्वस्थ है तो शरीर भी स्वस्थ है । यदि मन स्वस्थ नहीं है तो शरीर कैसे स्वस्थ रहेगा ? हजारों-हजारों वर्ष पहले आयुर्वेद के आचार्यों ने इस सचाई का अनुभव किया था-रोग शारीरिक और मानसिक-दोनों प्रकार के होते हैं। वर्तमान आयुर्विज्ञान के अनुसार मनोकायिक रोगों की तालिका बहुत लम्बी है। मनोकायिक रोग मन और शरीर-दोनों की रुग्णता से होने वाला रोग है। कायिक रोगों की चिकित्सा
( १७ ) खण्ड ४/३
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